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अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: महिलाओं के खास अधिकार, हर स्त्री को होनी चाहिए जानकारी

International Women’s Day: इस बार महिला दिवस से पहले महिलाओं के हक में एक चर्चा चली, एक सुगबुगाहट सुनाई दी और एक उम्मीद की किरण दिखाई दी… पीरियड्स लीव के रूप में। और ऐसा लगा कि वाह, औरतों के तो दिन फिर गए। उनके ‘उन कठिन दिनों’ के बारे में इतनी चिंता जो की जा रही है…. लेकिन जब इसके बारे में हमने गली-मुहल्लों में दरवाजे के पीछे छुपी सी खड़ी महिलाओं से राय मांगी तो पहले तो उनके चेहरे पर हैरानी थी कि ऐसा भी कुछ होगा क्या… और एक निराशा भी थी कि इससे उनके लिए क्या बदलेगा? क्या बदलेगा और कब बदलेगा… ये बदकिस्मती से आम औरत की ज़िन्दगी के सबसे कठिन प्रश्न हैं। सालों- साल महिला दिवस मना लिए जाने के बाद भी।

‘जान है तो जहान है’… ‘सेहतमंदी हजार नियामत’ और’ स्वास्थ्य ही पूंजी’ है, हममें से शायद ही किसी ने ये इबारतें न पढ़ी होंगी। क्या सबके लिए ये इबारतें समान रूप से लिखी गई हैं? लिखने वाले ने तो जरूर लिखी होंगी,पर सच्चाई तो ये है कि भारत की आधी आबादी, जिसे महिला नाम से जाना जाता है, आज भी इन सुविधाओं से महरूम है और महज कागजों पर ही इन्हें देखती आई है। महिलाओं की सेहत के मामले में हमारा समाज, कितना जागरूक है, आज महिला दिवस पर इसी की पड़ताल कर लेते हैं। सबसे पहले बात पीरियड्स लीव पर चल रही चर्चा की…

प्रयास चल रहा है कि कामकाजी महिलाओं को इस दौरान छुट्टी की सुविधा मिले। लेकिन क्या सारी औरतें कामकाजी हैं? असल ‘भारत’ जो गलियों और गांवों में बसता है, उसमें माहवारी के उन कठिन दिनों में महिला अगर-

  • अचार छू ले तो अचार खराब हो जाता है,
  • गाय को छू ले तो गाय बांझ हो जाती है,
  • भोजन को छू ले तो भोजन अपवित्र हो जाता है,
  • और आदमी को छू ले तो वह बीमार पड़ जाता है।
  • बिना अपराध दी जाने वाली सजाओं की ये फेहरिस्त लंबी है।

अब इन्हीं ‘महापापी’ तीन दिनों पर सरकार और कचहरी की नज़र मेहरबान हुई है और ‘पीरियड्स लीव’ का काॅन्सेप्ट सामने आया है। बहस चल पड़ी है कि इन तीन दिनों में कामकाजी महिलाओं को लीव यानि अवकाश वह भी सवैतनिक दिया जाना चाहिए। यह नेक नीयत स्वागत योग्य है लेकिन क्या इन्हीं तीन दिन के अवकाश से महिलाओं की सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी? क्या महिलाओं की सारी समस्याओं का मूल ये तीन दिन ही हैं? मुद्दा यह नहीं है कि महिलाओं के हित में यह कदम उठाया जाए या नहीं। सवाल यह है कि इस चर्चा के साथ महिलाओं का खैरख्वाह बनने का प्रयास करने वाला वर्ग क्या जानता भी है कि महिलाओं की असल समस्याएं क्या हैं? क्या हमारा समाज, समाज का पुरुष वर्ग उस अनचाही परिस्थिति,उस नारकीय जीवन,उस अपमानित गौरव और उन दमित लालसाओं के साथ मन मारकर जी रही नारी की समस्याओं को महसूस भी करता है… बदकिस्मति से नहीं! महिलाओं के नाजुक मन,संवेदनाओं, भावनाओं पर किए जाने वाले वार और शरीर के दमन यानि फिजिकल और मेंटल हरासमेंट को एक तरफ रखकर अगर शारीरिक स्वास्थ्य और समस्याओं पर भी नजर डालें तो जो पिक्चर सामने आती है वह यह है-

  • भारत के गांवों – कस्बों में आमतौर पर जो बात प्रचलित है वह यह है कि बेटियां नहीं मरतीं। इसलिए जन्म के तुरंत बाद बेटों के रखरखाव ,देखभाल पर पूरा परिवार जान लुटाता है। वहीं जाने कितने ही घरों में नवजात कन्या शिशु को माता का दूध तक नहीं पिलाया जाता।लैंगिक विषमता का यह दंश उम्र भर किसी न किसी रूप में महिलाओं के साथ चलता है।
  • कम उम्र में विवाह के साथ शारीरिक उत्पीड़न,काम का बोझ और मातृत्व, जिन समस्याओं को जन्म देता है,उनसे सब वाकिफ ही हैं।
  • जिस पीरियड लीव की चर्चा जोरों पर है उन सबसे कठिन तीन दिनों में भी आज भी असंख्य महिलाओं को सैनेटरी नैपकीन्स नहीं मिलते। दूर-दराज में ऐसे कितने ही क्षेत्र हैं जहां महिलाएं हैवी ब्लीडिंग को कंटोल करने के लिए कपड़े के अलावा भूसी,राख,अखबार तक का इस्तेमाल कर रहीं हैं।

अच्छा आप बताइये, ये कठिन समय औरत की जिंदगी में क्यों हर माह चला आता है, गर्भधारण की तैयारी के लिए न। लेकिन वही गर्भ अगर गिर जाए यानि महिला का गर्भपात या मिसकैरेज हो जाए तो उससे कन्नी काट ली जाती है। अब वह किस काम की। अब उसके जर्जर शरीर और टूटे मन से किसी का सरोकार नहीं। उसका शरीर,वह जाने। जब शिशु को जन्म ही नहीं दिया तो काहे का आराम,काहे का पौष्टिक खाना और काहे की देखभाल,उसे किसी चीज की जरूरत नहीं होती।

एक और कड़वा सच, देश की आधी से ज्यादा महिलाएं बीमार पड़ने पर डाक्टर के पास नहीं जातीं। मेडिकल स्टोर से ‘ओवर द काउंटर’ दवाई ले आती हैं। खाकर थोड़ा लेटने का जुगाड़ हो गया तो ऊपरवाले की बड़ी इनायत। उसके बाद फिर बिना आराम,लगातार घर का काम करते हुए वे ठीक भी हो जाती हैं। और तो और बेहद खराब हालत में भी उन्हें हाॅस्पिटल में एडमिट कराए जाने का विचार तक नहीं कौंधा करता। देवरानी-जेठानी या पड़ोसन हाथ थाम ले तो पड़ोस के क्लीनिक में जाकर दो बोतल ग्लूकोज़ चढ़वा लेती हैं और फिर हड़बड़ाहट में घर की अधूरी जिम्मेदारियों का बोझ उतारने वापस लौट आती हैं। एडमिट होने की ‘लक्ज़री’ हर एक के बूते में थोड़े ही होती है।

इस सबके अलावा घर की डस्टबिन का रोल भी महिलाएं ही निभाती हैं। रात का बासी भोजन बच गया तो वह महिला के हिस्से ही आता है। और खाना कम भी पड़ गया तो भी कोई दिक्कत की बात नहीं, उसका तो अचार रोटी खाकर भी काम चल जाता है।

महिला स्वास्थ्य और समस्याओं की लिस्ट में मातृत्व संबंधी मृत्युदर , एनीमिया,असुरक्षित गर्भपात,अनचाही प्रेग्नेंसी जैसी अनगिनत बातें शामिल हैं। इस मामले में एक और अनचाहा तथ्य यह है कि महिलाओं की जीवन अवधि पुरुषों के मुकाबले अधिक होती है। कंगाली में आटा गीला इसी को तो कहते हैं। जीवन अवधि अधिक और जीवन स्थिति बदतर,कुल मिलाकर देश की 80 प्रतिशत महिलाओं की जीवन परिभाषा कमोबेश यही है।

तो समाज के ठेकेदारों,आदरणीय पुरुष वर्ग और महिला सरोकारों और हितों की बातें करने वाली प्रगतिशील महिलाओं और संस्थाओं, क्या आपको नहीं लगता कि पीरियड लीव से आगे बढ़कर भी कुछ सोचने की जरूरत है। केवल पीरियड लीव से क्या होगा,किसे फायदा होगा,केवल उन्हीं महिलाओं को न,जो पहले ही बेहतर स्थिति में हैं। देश में कितने प्रतिशत महिलाएं ऐसी नौकरियों में हैं,जिन्हेंं इस लीव का फायदा मिलेगा, केवल 8 प्रतिशत ।और बाकी सहायक कामवालियों और घरेलू महिलाओं का क्या? उन्हें लीव की जरूरत नहीं है? एक घेरे में कैद,सिर्फ हां में सिर हिला हुकुम बजाती और जीते जी नरक काट रही महिलाएं आधी आबादी का थका हुआ बेरौनक चेहरा है। उस बेरौनक चेहरे पर जब सुकून की मुस्कुराहट फैलेगी तभी असली महिला दिवस मनेगा…और यह कब होगा,यह बदकिस्मती से अब भी प्रश्न ही है।

https://npg.news/article/international-women-day-2023-women-legal-right-india-mahilaon-ke-adhikar-hindi-1238688