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देश की आजादी के साथ कभी मोलभाव नहीं होना चाहिए, यह सब्जी की दुकान नहीं है… अलगाववादियों की कभी खुशामद न करो: राम माधव

रायपुर। आरएसएस नेता राम माधव ने राजधानी में कहा कि देश की आजादी के संबंध में सारी बातें लोगों को नहीं बताई गई है। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से देश को आजादी नहीं मिली। इस आंदोलन के बाद ब्रिटेन के वाइसराय ने मैसेज भेजा था कि हमने सोचा था कि भारत छोड़ा आंदोलन से उपद्रव हो सकता था, लेकिन यह आंदोलन कमजोर निकला। देश का आखिरी बड़ा आंदोलन सफल नहीं हो पाया। उस समय सुभाष चंद्र बोस का योगदान महत्वपूर्ण था।

बोस मणिपुर में अपनी सेना के साथ आए अंग्रेजों को परास्त किया और तिरंगा फहराया। देश के विभाजन से पहले 1943 में जब मणिपुर और नागालैंड पर से अंग्रेजों को खदेड़ दिया था। उससे प्रेरणा का बड़ा ज्वार उठा। इसके बाद सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। आर्मी कैम्प में विद्रोह हो गया। इसके बाद ब्रिटिश पार्लियामेंट में यह प्रस्ताव आया कि अब रूल करने की क्षमता नहीं है। भारतीय सेना बात नहीं मान रही है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो हालात थे, उससे अंग्रेजों ने भारत में सेना भेजने का फैसला नहीं किया, क्योंकि उस समय दो लाख सैनिक भेजना पड़ता और सैनिक तैयार नहीं थे। सैनिकों के विद्रोह ने भारत की आजादी की बड़ी भूमिका रखी। राम माधव ने कहा कि किताब का उद्देश्य सही नैरेटिव को सामने लाना है। आज कर्तव्य पथ पर सुभाष चंद्र बोस खड़े हैं। इससे गांधी जी छोटे नहीं हो जाते। पटेल के बड़े होने पर नेहरू छोटे नहीं हो जाते। सबका योगदान बड़ा है। सभी का सम्मान है। उन्होंने कहा कि विभाजन के समय जो कुछ हुआ, उससे यह सीख मिलती है कि कभी अलगाववादियों की खुशामद नहीं करनी चाहिए। देश की आजादी का मोलभाव नहीं होना चाहिए। यह सब्जी की दुकान नहीं है।

देश के विभाजन के समय खामोशी क्यों?

राम माधव ने कहा कि 1905 में जब अंग्रेजों ने बंगाल को हिंदू और मुस्लिमों को बांटने की कोशिश की तो उसके विरोध में पूरा देश उठ खड़ा हुआ। वंदे मातरम बड़ा नारा था। इससे प्रेरणा मिलती थी। सभी मिलकर वंदे मातरम गाते थे। आखिरकार 1911 में किंग जॉर्ज-6 को भारत आना पड़ा और कहना पड़ा कि वे बंगाल विभाजन को रद्द कर रहे हैं। इसके बाद जब 1947 में देश का विभाजन हुआ, तब सब खामोश क्यों थे? गांधी जी, नेहरू और पटेल सभी पहले देश के विभाजन के विरोध में थे, लेकिन विभाजन पर दस्तखत नेहरू ने किए। इसकी खबर गांधी जी को भी नहीं दी गई थी, क्योंकि उस समय कांग्रेस ने उनसे सलाह लेना बंद कर दिया था।

खुद को मुस्लिम गोखले कहते थे जिन्ना

मोहम्मद अली जिन्ना ने 1904 में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता के रूप में अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की। वे देश की एकता के उपासक थे। उस समय गोपालकृष्ण गोखले कांग्रेस के बड़े नेता थे। जिन्ना उनसे काफी प्रभावित थे और खुद को मुस्लिम गोखले कहते थे। जब मुस्लिम लीग का गठन हुआ, तब जिन्ना ने विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि मुस्लिमों का कोई अलग दल नहीं होना चाहिए। गांधी जी ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग को साथ लाने की कवायद की थी। लखनऊ अधिवेशन में बाल गंगाधर तिलक ने इसे लक नाऊ कहा था। यानी मुस्लिम लीग के आने से हमारा नसीब खुल गया।

1935 के बाद बदलने लगे थे जिन्ना

जिन्ना पहले राष्ट्रवादी थे, लेकिन 1935 आते-आते वे बदलने लगे थे। पहले सूट पहनते थे, फिर शेरवानी पहनने लगे। पहले मुस्लिमों के लिए अलग दल का विरोध करते थे, फिर मुस्लिमों की राजनीति करने लगे। 1940 में भारत पाकिस्तान के बंटवारे की घोषणा कर दी। सड़क पर लड़ाई का ऐलान कर दिया। इससे पहले जब मुस्लिम लीग और कांग्रेस साथ आई, तब वंदे मातरम का विरोध हुआ। हिंदी का विरोध हुआ और हिंदुस्तानी की बात हुई। यहां तक कि जब देश के झंडे की बात आई, तब कमेटी ने भगवा झंडे की सिफारिश की थी। कमेटी में मौलाना आजाद, मोतीलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि नेता थे। कांग्रेस ने विरोध किया और तीन रंग का झंडा बनाया गया। भगवा हिंदुओं के लिए, हरा रंग मुस्लिमों के लिए और सफेद ईसाईयों के लिए। बाद में डॉ. राधाकृष्णनन ने इसकी परिभाषा त्याग, बलिदान और शांति के रूप में की थी।

इस दौरान पूर्व मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, यंग थिंकर्स फोरम के अध्यक्ष उज्जवल दीपक सहित बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी उपस्थित थे।

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