वाराणसी। आज गंगा के पावन तट पर स्थित अघोरेश्वर महाविभूति स्थल के पुनीत प्रांगण में परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी की जननी “माँ महा मैत्रायणी योगिनी जी” का 31वाँ निर्वाण दिवस बड़ी ही श्रद्धा एवं भक्तिमय वातावरण में मनाया गया। मनाने के क्रम में प्रातः आश्रम परिसर की साफ-सफाई की गई। लगभग 9:30 बजे से पूज्यपाद बाबा गुरुपद संभव राम जी ने परमपूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु एवं माताजी की समाधि पर माल्यार्पण, पूजन एवं आरती किया। इसके बाद देशरत्न पाण्डेय ने सफलयोनि का पाठ किया। तत्पश्चात् पूज्य बाबा जी ने हवन-पूजन किया। मध्याह्न 12:30 बजे से एक पारिवारिक विचार गोष्ठी आयोजित की गयी जिसमें वक्ताओं ने माँ महा मैत्रायणी योगिनी जी को याद करते हुए उनसे प्रेरणा लेने की बात कही। वक्ताओं में उषा सिंह जी, डॉ० कमला मिश्र जी, भारती सिंह जी थीं। प्रीतिमा सिंह जी एवं गिरिजा तिवारी जी ने भजन प्रस्तुत किया। मंगलाचरण कुमारी पूर्णिमा ने किया और पूज्य बाबा को माल्यार्पण कुमारी राशि ने किया। गोष्ठी का सञ्चालन सुष्मिता ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन संस्था के उपाध्यक्ष सुरेश सिंह ने किया।
अपने आशीर्वचन में संस्था के अध्यक्ष पूज्यपाद बाबा औघड़ गुरुपद संभव राम जी ने कहा कि आज माँ महा मैत्रायणी जी के निर्वाण दिवस पर हमलोग एकत्रित हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि आज बहुत-से लोगों का जीवन जीना, उसको बरतना, उसमें कार्य करना बहुत कठिन हो गया है। एक तो वैसे ही बहुत-सी परेशानियाँ हैं चाहे वह कानून के द्वारा हो, चाहे जो हमारे देख-रेख कर्ता लोग हों, अगुआ लोग हों और जो शासन-प्रशासन के लोग हैं, चाहे हमारी अपनी कमजोरियाँ हों जो हमलोगों को इस स्थिति में ले आयी हैं। यह हमलोगों को और भी कमजोर बना दे रही हैं। मैं देख रहा हूँ कि इतने लोग रोगग्रसित हो रहे हैं, जागरूक नहीं हो पा रहे हैं जिसके चलते हमारा स्वास्थ्य, मन, मस्तिष्क, कार्यक्षमता बहुत ही कम हो जा रही है। कार्य करने की, सोचने-विचारने की क्षमता समाप्त होती जा रही है। दूसरे यह कोरोना की बीमारी आने के बाद लोगों की सहनशक्ति तो और भी कम हो गयी है। बात-बात पर लोग बिगड़ जा रहे हैं, क्रोधित हो जा रहे हैं। पहले बड़े लोगों का मन-मस्तिष्क विकृत हुआ करता था, लेकिन आज तो बच्चे और नवयुवक भी मानसिक रूप से विकृत हो जा रहे हैं। इसी से आत्महत्याएं भी हो रही हैं। रोजमर्रा के खान-पान में मिलावट के चलते भी हमारा शरीर कमजोर हो जा रहा है। कम उम्र में भी लोग बैठे-बैठे, आते-जाते, खेलते-कूदते गिर के कब समाप्त हो जा रहे हैं, उनका जीवन समाप्त हो जा रहा है। हम किसी के भरोसे रहेंगे, ऐसे लोगों की आशा करेंगे जिन्होंने आज तक हमारे देश में खाद्य-पदार्थों में होने वाली मिलावट पर नियंत्रण नहीं कर पाया, तो हमारी और हमारे समाज की, देश की दुर्दशा होनी ही है। इससे विकृतियाँ बढ़ रही हैं जो हमलोग रोज ही अखबारों में, टीवी पर देखते-सुनते रहते हैं। तो हमें अपनी सुरक्षा स्वयं ही करनी होगी, अपना खयाल अपने ही रखना होगा। हम किसी के भरोसे रहेंगे तो हम कुछ नहीं कर पायेंगे बल्कि वह तो हमारा बिगड़ ही देंगे।
आजकल तो अपने माता-पिता की भी उपेक्षा हो रही है। उनके बीमार होने पर, उनके प्राण-त्याग होने पर भी दूर से ही वह पैसा भेज देते हैं, बोल देते हैं की इनका करवा दीजिये, उनसे कोई लेना-देना नहीं रह गया है जिन्होंने आपको पैदा किया, पाला-पोषा, बड़ा किया। सभी लोग जानते हैं कि कितने दुःख उठाने पड़ते हैं लालन-पालन में। लेकिन आज सबकी संवेदनाएं मर चुकी हैं। इसका कारण हमारा रहन-सहन, खान-पान और हमारी आबो-हवा का बदलना है। इस पर हमें अवश्य विचार करना होगा कि हम अपने अन्दर क्या प्रवेश दिलाएं? चाहे उसमें किसी की भी मुहर लगी हो। इसीलिए इतने डाक्टरों और अस्पतालों की जरुरत पड़ रही है। हम अपने शरीर के लिए अपने अनुकूल योगासन अवश्य ही करें। वृद्ध भी अपने अनुकूल योगासन करके स्वस्थ रह सकते हैं। नौजवान शुरू से योग करेंगे तो बलशाली होंगे, उनकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी। आजकल तो कई लोग शुद्धता के लिए ही अपने घरों में, छत पर, गमलों में भी साग-सब्जी उगा ले रहे हैं। आज हर कोई लोभ के वशीभूत दूसरों को जहर देकर जल्दी अमीर बन जाना चाहता है।
माताजी जी भी अपने सान्निध्य में आने वालों को प्रेरणा देती रहती थीं कि हमें अपने आचरण-व्यवहार पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। हम अपने देव-दुर्लभ शरीर पर ध्यान नहीं देंगे तो इसके परिणाम घातक हो सकते हैं। हमारे शरीर में प्राणमयी माँ की इतनी दया है तो हमें इस पर अवश्य विचार करना होगा कि हमें कैसे रहना है, कैसे जीना है, कैसा खान-पान रहे, कैसा रहन-सहन रहे, कैसे हमारे वातावरण की शुद्धता हो। आज प्रगति के नाम पर प्रकृति को नष्ट कर दिया जा रहा है। यह हमारे ही देश में हमारे ही देशवासी लोग कर रहे हैं। हम जिसे भारतमाता कहते हैं उनका नुकसान हम खुद ही करते हैं जिससे हमारा अपना ही नुकसान हो रहा है। कहा गया है आज का कर्म कल का भविष्य। आज जो हम कर्म करेंगे उसका फल तो हमें मिलना ही है। यहाँ नहीं मिला तो कहीं-न-कहीं मिलेगा ही। कर्म किसी को छोड़ता नहीं है, अपना भोग हमें भोगना ही होता है। चाहे हमें इसी शरीर में मिले चाहे कहीं अन्यत्र मिले। क्योंकि हमारी अघोर-ग्रंथावली कहती है कि एक यही सौरमंडल नहीं है और भी सौरमंडल हैं। हमारे संस्कारों के हिसाब से ही हमारे जन्म होते हैं, चाहे इस सौरमंडल में हो चाहे किसी और सौरमंडल में हो। आजकल वैज्ञानिक भी यही बता रहे हैं जो अघोरेश्वर महाप्रभु ने बहुत पहले अपने ग्रंथों में वर्णित कर दिया है। तो हम अपने-आप पर दया करें और निकृष्ट कर्मो से बचें। अपने संस्कार, अपने विचार-भावनाओं को शुद्ध रखने और अपने शरीर को स्वास्थ रखने की कोशिश करें। मैं देख रहा हूँ कि इस बीमारी के बाद तो लोग और भी विकृत हो गए हैं। कहिये कुछ तो सुनेंगे कुछ, समझेंगे कुछ, जवाब देंगे कुछ। बुजुर्ग हो गए हैं तो कह सकते हैं कि उनका मन-मस्तिष्क उतना काम नहीं कर रहा है, लेकिन अब तो नौजवान भी इस तरह के काम कर रहे हैं। बुजुर्ग हैं कुछ बोल दिए तो उसका हमें बुरा नहीं मानना चाहिए।
अगर कोई गाली भी देता है और हम नहीं लेते हैं तो वह उसी के पास रह जाता है। जो हमलोग प्रतिक्रिया करने लगते हैं, वह गलत है जो आजकल बहुत तेजी से समाज में फैल रहा है। किसी क्रिया की प्रतिक्रिया तुरंत करने से, अनर्गल लोगों से बातें करने से हमारा नुकसान होता है, हमारी शक्ति क्षीण होती है। विशेषकर जब हमलोग यहाँ आते हैं आश्रमों में जाते हैं तो हमें प्रयत्न करना चाहिए कि शांत रहकर, एकांत में रहकर चिंतन-मनन करें, योग-प्राणायाम करें, अपनी साधना करें और अपने-आपको कुछ देर खाली रखें। यह ऐसी जगहें हैं जहाँ के वातावरण में ईश्वर का प्रत्यक्ष निवास महसूस होता है। बहुत-से लोग बाहर से आकर कहते हैं कि यहाँ आकर बहुत शांति महसूस होती है। शांति तभी महसूस होगी जब आप स्थिर होंगे। चंचल मन भटकत दिर-राती, हमारी चंचलता हमें कुछ ग्रहण नहीं करने देती। पढ़ने-लिखने, अपने कार्य के लिए भी हमें स्थिरता चाहिए वैसे ही मन्त्र-जाप और ध्यान-धारणा के लिए भी हमें स्थिरता चाहिए। मैं आशा करता हूँ कि प्रथम हम अपने शरीर का ख्याल रखें तभी हम दूसरों का भी ख्याल रख सकेंगे। क्योंकि गिरे हुए गिरे हुओं को नहीं उठा सकते, उठे हुए ही गिरे हुए को उठा सकते हैं। यदि हमलोग जागरूक हैं, समझने का प्रयत्न करते हैं, करेंगे, तो अवश्य अपने इस देव-दुर्लभ शरीर, जिसमें प्राणमयी भगवती का वास है उस पर ध्यान देंगे। जिसके लिए हमलोग साधु-संतों के यहाँ, आश्रमों में आते हैं, उसका लाभ तभी हमें मिल पायेगा। अपने अनुभव से ही उसका लाभ महसूस होगा न कि किस्से-कहानियों से। किस्से-कहानियों से प्रेरणा ले सकते हैं लेकिन उसके अनुभव के लिए स्वयं हमें चलना होगा, स्वयं करना होगा। मुझे आशा है कि आपलोग इस प्रयत्न को करके, उसका अनुभव लेकर, उसको महसूस कर, उसको आत्मसात करेंगे।