कनक तिवारी
अग्निमय सुभाष बोस स्वाधीनता आंदोलन की कड़ियल छाती का लावा हैं. ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा‘ और ‘गुलामी के घी से आजादी की घास बेहतर है‘ जैसे पौरुषपूर्ण नारों के साथ सुभाष बाबू कांग्रेस के कथित क्लैव्य के सामने चुनौतीपूर्ण मुद्रा में खड़े होते हैं.
तरुणाई ने यदि स्वतंत्रता आन्दोलन में कहीं मुकाम पाया था, तो वह मध्यप्रदेश की त्रिपुरी में 1939 में, जब इस सदाबहार नौजवान ने महात्मा गांधी के घोषित प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारामैया को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में मुकम्मिल तौर पर परास्त किया था. बीमार सुभाष को देखकर भी अच्छे अच्छे सूरमाओं को बुखार चढ़ जाता था.
इस महानता के बावजूद सुभाष बोस को कांग्रेस की केन्द्रीय भूमिका से बेदखल कर हाशिए पर खड़ा कर दिया गया. राज्य और केन्द्र सरकारों की उपेक्षा का तिरस्कार सहता यह आत्मा-केन्द्र आज भी भारतीय नवयुवकों को ललकारता है. बहुत से तीसमार खां दक्षिणपंथी या वामपंथी-सुभाष के मुकाबले बौने हैं-उनको लेकर सरकारें बिछी जा रही हैं.
लेकिन बीसवीं सदी का यह भूकम्प पारम्परिक इतिहासकारों और प्रतिबद्ध राजनेताओं की जड़ता को हिला नहीं पाया है. उन पर ‘जापानियों का एजेन्ट‘ और ‘तोजो का कुत्ता‘ जैसी फब्तियां भी कसी गईं. उनके चरित्र तक पर लांछन लगाए गए. त्रिपुरी में भी सुभाष का स्मारक संस्कृति-स्थलों के सम्मान के अनुरूप नहीं है.
सुभाष की सबसे बड़ी देन गिरे टूटे भारतवासियों में पौरुष भरना था. देश की तरुणाई को उन्होंने मातृभूमि की बलिवेदी पर मर मिटने की हुंकार लगाई. लगा जैसे पुराणों के पन्नों में जान पड़ गई हो. जैसे हमारे विद्रोही संतों की आत्मा का स्वर उनके कंठ की पर्तों को चीरकर समा गया हो. जैसे दुर्गा सप्तशती की विद्रोहिणी भाषा बीसवीं शताब्दी का इतिहास बदल देने गरज उठी हो.
एक गुलाम, दहशतजदा कौम की धमनियों में तेजाब भरना लगभग असम्भव कार्य था जो सुभाष बोस ने कर दिखाया. उनका ‘दिल्ली चलो‘ का नारा आज भी ‘इन्कलाब जिन्दाबाद‘ के पूरक के रूप में गूंज रहा है. उनका यश हर भारतीय के लिए संचित निधि की तरह है जिसके ब्याज से ही पीढ़ियों का काम चलता रहेगा.
अरविन्द घोष के रहस्यवाद, नजरुल इस्लाम के धर्मनिरपेक्ष छंद, रवीन्द्र संगीत और विवेकानन्द के शौर्य के साथ सुभाष बोस की उपस्थिति बंगाल के जीवन का स्पन्दन है. गांधीजी से व्यापक असहमति के बावजूद आजाद हिन्द फौज में ‘गांधी ब्रिगेड‘ रखना नेताजी की उदारता थी.
‘नेताजी‘ एक जनवादी सम्बोधन है. वह एक बेहतर लोकतांत्रिक, संवैधानिक और जनपदीय अभिव्यक्ति है. महात्मा, सरदार, पंडितजी, देशरत्न, भारतकोकिला, मौलाना, देशबंधु, महामना, राजर्षि, लोकनायक, आचार्य, लोकमान्य जैसे बीसियों संबोधनों के मुकाबले ‘नेताजी‘ जैसा शब्द जनभाषा का सम्मान है.
उनकी संदेहास्पद स्थितियों में हुई मृत्यु को भी खूब भंजाया गया. उन्हें मिथकों, रहस्यों और किंवदन्तियों का चरित्र बनाकर रखने से भारतीय पत्रकारिता भी सनसनी फैलाती रही लेकिन वह दृष्टि खो दी जो नेताजी के विचारों को संविधान, प्रशासन और राजनीति के लिए कारगर बनाती. इतिहास के चैखटे में राष्ट्रीय दृष्टि का विकास ही नहीं हो पाया. सुभाष बोस इतिहास निर्माता थे. उनके योगदान को जांचने के लिए प्रगतिशील चश्मे की जरूरत नहीं है.
सुभाष बाबू को दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों की काठी पर भी नहीं चढ़ाया जा सकता. इस महान जननायक में भारत ही भारत कुलबुलाता था. कम्युनिस्टों और हिन्दू महासभाइयों में कितने हैं जो आजाद हिन्द फौज और फारवर्ड ब्लॉक में शामिल हुए?
सरकारों के शिक्षण पाठ्यक्रम में सुभाष बाबू की कितनी हिस्सेदारी है? यदि कहीं है तो मिलिटरी जैसी पोशाक उनके विचारों पर वर्क की तरह चढ़ा दी जाती है. क्या वे मौजूदा राजनेताओं पर घिनौनी विचारदृष्टि के लायक भी नहीं हैं?
सुभाष बोस, भगतसिंह, मानवेन्द्रनाथ रॉय, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, मदनमोहन मालवीय, राजगोपालाचारी, लोकमान्य तिलक, अरविन्द घोष जैसे प्रखर बुद्धिजीवी राजनीतिक विचारधाराओं के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट की पूंजी नहीं हैं.
राजनीतिक पार्टियों को यह स्पष्ट करना होगा कि वे किसके विचारों का कितना समर्थन कर सकती हैं, आचरण कर सकती हैं अथवा उनसे उनकी सैद्धांतिक असहमति है. उनके विचारों की स्याही यदि किसी देश का भाग्य-लेख नहीं लिख सकती तो उनकी महानता का अर्थ ही क्या है?
जिस अवाम के लिए वे मरे, खपे, उसे यह जानने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि उनके विचारों का समकालीन रूपान्तरण कितना कुछ हो सकता है? सुभाष बोस बिजली या बैटरी से यंत्रचालित कोई झुनझुना नहीं हैं जिसे बजाने का काम प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य पदासीन लोग उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर भी नहीं करें और इतिहास टुकुर टुकुर देखता रहे.
त्रिपुरी कांग्रेस पर पुस्तक सम्पादित करने में सामग्री चयन को लेकर मुझे काफी दिक्कतें आईं. पुस्तक की प्रति प्रख्यात पत्रकार अरुण शोरी को मिलने पर उन्होंने राहत की सांस ली क्योंकि वे खुद उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे थे. मैं जब सिंगापुर गया हूं, उस मैदान पर जरूर गया हूं जहां सुभाष बोस ने जंगे आजादी में अपना सब कुछ न्यौछावर करने वाले पचास हजार से अधिक नवयुवकों को ऐतिहासिक उद्बोधन दिया था.
एक गुलाम, दहशतजदा कौम की धमनियों में लावा भरना असम्भव कार्य था जो सुभाष बाबू ने कर दिखाया. उस मैदान पर खड़े होने से भुरभुरी होती है. लगता है जैसे भारतवासी होना अन्तरराष्ट्रीय गौरव की बात है. उनके अशेष साथी कर्नल गुरदयाल सिंह ढिल्लन और कैप्टेन लक्ष्मी सहगल का सम्मान समारोह जब मैंने आयोजित किया तो उनकी आंखों में सुभाष बाबू की द्युति हमें दिखाई दी थी.
सुभाष बोस जनशताब्दी में मैंने उनके द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज के कौमी तरानों का एक श्रव्य कैसेट मूल धुनों के रचनाकार आज़ाद हिन्द फौजियों से तैयार कराया. दर्शकों, श्रोताओं की आंखों में आंसू छलक उठे. उसमें सुभाष बाबू की ओजमय आवाज दर्ज है. उनके सहायक कर्नल गुरदयाल सिंह ढिल्लन और कैप्टेन लक्ष्मी सहगल सहित कई सैनिकों का सम्मान समारोह मैंने आयोजित किया था. उनकी आंखों में सुभाष बाबू की चमक दिखी थी.
सुभाष बाबू की किताबों का यथेष्ट प्रकाशन-प्रचार तक नहीं हुआ है. यह काम भी उनके वंशजों को मुख्यतः करना पड़ रहा है. केन्द्र और राज्य सरकारों के बजट का सैकड़ों करोड़ रुपया दागी मंत्रियों की लोक छवि के विज्ञापन देने में खर्च होता रहता है. लाखों रुपये केवल एक विज्ञापन के लिए खर्च कर दिए जाते हैं.
इतिहास के कीड़े मकोड़े इतने महत्वाकांक्षी क्यों होते हैं? जितनी तस्वीरें भ्रष्ट मंत्रियों की छपती हैं, उतनी तो राष्ट्र निर्माताओं की नहीं. स्कूली बच्चों के बीच राष्ट्रनायकों की किताबें क्यों नहीं मुफ्त वितरित की जा सकतीं?
इससे उनमें अपना निजी पुस्तकालय विकसित कर पढ़ने की ललक विकसित होगी. यदि अतिरंजित प्रचार के सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगा दी जाए तो स्वतंत्रता के नियामकों का पूरा साहित्य राष्ट्र को सौगात के रूप में सौंपा जा सकता है.
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