रायपुर। संवाददाताः धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ से चावल का स्वाद और उसकी सुगंध गायब होती जा रही है. छत्तीसगढ़ स्वाद और सुगंधित धान की किस्मों को लेकर देश में अपनी अलग पहचान रखता था.
दुबराज, कालाजीरा, जवाफूल, बासमती, तुलसी माला, बादशाह भोग, कालीमूछ जैसी प्रजातियां जब किसान अपने खेतों में लगाते थे तो खेत-खलिहान गमकने लगता था.जब घरों में चावल पकता था तो आस-पड़ोस तक महक पहुंच जाती थी.
लेकिन धान की ये प्रजातियां अब रसोई से गायब हो चुकी हैं और सच तो ये है कि खेतों से भी स्वाद और सुगंध वाली धान की प्रजाति ख़त्म होती चली गई है.
किसानों ने इन प्रजातियों को उगाना लगभग छोड़ दिया है.
छत्तीसगढ़ में धान की 23,250 से अधिक प्रजातियां संग्रहित हैं लेकिन इनमें से अधिकांश पारंपरिक किस्में अब केव जर्मप्लाज़्म के रुप में रह गई हैं.
दशक भर पहले तक गांवों में सुगंधित धान की किस्मों की काफी पूछ-परख थी.
पौधों से बाली निकलते ही इसकी खुशबू हवा में तैरने लगती थी. लोग महक से ही जान जाते थे कि खेत में कौन सी धान की किस्म लगी है.
लेकिन ये सब अब गुजरे ज़माने की बात हो गई.
किसानों ने पहले बेचने के लिए अलग प्रजाति और अपने खाने तक के लिए स्वाद और सुगंध वाली धान को उगाना सीमित किया. लेकिन धीरे-धीरे यह परंपरा भी ख़त्म हो गई.
कम लागत और कम श्रम में अधिक से अधिक उपज, धान उगाने वाले किसानों का पहला ध्येय हो गया.
स्वाद और सुगंध के मामले में धान की चर्चित और लोकप्रिय किस्म दुबराज हुआ करती थी.
इसको पकने में करीब 155 दिन लगते थे. इसके तने काफी लंबे होते थे और इसका चावल पतला और लंबा होता था.
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय और भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर मुंबई ने अपने शोध के बाद इसके पकने की समयावधि को घटाकर 135 दिन तक कर दिया. लेकिन प्रति एकड़ उत्पादन 10-12 क्विंटल तक बनी रही, जिसके कारण किसानों ने इस धान से तौबा कर लिया.
इसी तरह एक समय बासमती धान की खेती भी छत्तीसगढ़ में बहुतायत होती थी. अपने नाम के अनुरूप यह धान में स्वाद और सुगंध के मामले में खास थी.
बासमती चावल की बाजार में अच्छी-खासी मांग थी. आज की तारीख में देश के चर्चित मीडिया मालिक सुभाष चंद्रा का परिवार, छत्तीसगढ़ की बासमती के कारोबार से भी जुड़ा था.
हालांकि प्रति एकड़ इसका उत्पादन बहुत कम था. इसके कारण किसान धीरे-धीरे इसकी खेती कम करने लगे.
चावल का राजा कहे जाने वाले बादशाह भोग की खेती भी अब बेहद कम हो गई है.
इसी तरह विष्णुभोग की खेती भी अब कम होने लगी है. विष्णुभोग का चावल अपने आकार, रंग और विशिष्ट सुगंध के लिए जाना जाता है.
हालांकि अभी भी छत्तीसगढ़ के किसान त्योहारों के लिए विष्णुभोग रखते हैं. इस चावल का भोग भगवान को चढ़ाया जाता है.
इसी तरह से जीरा फूल, तुलसी माला, कालीमूछ, कालाजीरा, जवाफूल जैसी धान की किस्मों की खेती में भारी कमी आ गई है.
छत्तीसगढ़ सरकार समर्थन मूल्य पर धान की खरीदी करती है. वर्तमान में सरकार 3100 रुपए धान का समर्थन मूल्य दे रही है.
धान के समर्थन मूल्य में वृद्धि के कारण खेती का तेजी से व्यावसायीकरण हुआ है.
अधिक से अधिक उत्पादन के कारण किसान बेहतर स्वाद और सुगंधित किस्मों को छोड़कर अधिक उत्पादन वाली किस्मों को ही लगा रहे हैं.
अधिक उत्पादन के लिए हाईब्रिड बीजों का इस्तेमाल किया जा रहा है.
इसके कारण धान की देशी और सुगंधित प्रजातियां खतरे में पड़ गई हैं.
दुर्ग जिले के परसदा गांव के किसान पोषण साहू कहते हैं कि “हाईब्रिड धान से उत्पादन तो अच्छा होता है, लेकिन अगली बार खेती के लिए बीज नहीं बनता. हर सीजन बाजार से नया बीज खरीदना पड़ता है.”
वे कहते हैं- “देशी और परंपरागत किस्मों के साथ ऐसा नहीं होता था. घर पर ही बीज तैयार कर लिए जाते थे. अब जब परपंरागत धान की किस्मों की खेती ही नहीं हो रही है तो बीज बनाने का सवाल ही नहीं उठता.”
स्वाद और सुगंध वाली परंपरागत धान की किस्मों को नहीं उगाने को लेकर किसान कई कारण गिना रहे हैं.
परसदा के किसान भुनेश्वर साहू कहते हैं- “परंपरागत धान की किस्मों को लगाने में मेहनत और लागत अधिक लगती है, जबकि उत्पादन कम होता है.धान में बीमारी भी बार-बार लगती है. तीन से चार बार दवाई डालना ही पड़ता है. दवा छिड़काव में देरी हुई तो हाथ में कुछ नहीं आता. इसलिए परंपरागत किस्मों को लेकर काफी सावधानी और देखरेख की जरूरत पड़ती है जो हर किसान नहीं कर सकता.”
सुगंधित और पतले धान को लगाने में खर्च अधिक आता है.
किसानों के मुताबिक, पारंपरिक किस्मों साथ और भी कई समस्याएं हैं.
पौधों के लंबे होने, बाली निकलने के बाद पौधे के शीर्ष भाग के भारी होने और तना कमजोर होने के कारण पौधा जमीन पर गिर जाता है. इससे फसल चौपट हो जाती है.
दुर्ग जिले के ही ग्राम अमलेश्वर के किसान ओम प्रकाश यादव के मुताबिक, परंपरागत धान के किस्मों की खेती में कई दिक्कतें हैं. घर में खाने के लिए इसका उत्पादन तो किया जा रहा है, लेकिन बाजार में इसका भाव नहीं मिल रहा है.
उनकी राय है कि सरकार ने धान का जो समर्थन मूल्य निर्धारित किया है, उस दर सुगंधित धान की किस्मों को नहीं बेचा जा सकता. वह दर काफी कम है. इससे खेती की लागत भी नहीं निकल सकती.
भाठागांव के किसान रमेश शर्मा कहते हैं “सरकार को इन प्रजातियों के धान के लिए अलग से समर्थन मूल्य निर्धारित करना चाहिए. अगर अच्छा दाम मिलने लगेगा तो किसान परंपरागत धान की किस्मों को लगाना फिर से शुरू कर देंगे.”
पिछले कुछ सालों में स्वर्णा धान किसानों की पहली पसंद बन गई है.
ज्यादातर किसान स्वर्णा धान ही लगाना चाहते हैं. स्वाद और सुगंध के मामले में धान की यह किस्म भले ही पीछे है लेकिन पूरे बाजार में इसी धान का दबदबा है.
स्वर्णा धान की दो प्रजातियां हैं. एक लाल और एक सफेद स्वर्णा. इसमें लाल स्वर्णा की मांग ज्यादा है.
किसानों के मुताबिक, स्वर्णा धान रोपा और बुवाई दोनों में अच्छा उत्पादन देती है. इसकी खेती में कम पानी की जरूरत पड़ती है. बीमारी भी ज्यादा नहीं होती. छुट-पुट बीमारियों को यह आसानी से झेल जाती है.
यहां तक कि बाली निकलने के बाद पकने में ज्यादा समय नहीं लगता.
धान की इस किस्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि किसी भी परिस्थिति में यह किसान को उसकी लागत जरूर निकाल कर दे देती है. इसी वजह से धान की इस किस्म के प्रति किसानों में भारी आकर्षण है.
स्वर्णा के अलावा 1010, 1012 और महामाया की भी खेती खूब हो रही है.
ये किस्में भी कम दिनों में पकने वाली हैं. पानी की समस्या वाले खेतों में किसान इन किस्मों को लगा रहे हैं. इनके पौधे छोटे होते हैं, जिससे इनके गिरने का डर नहीं होता. इनका उत्पादन भी काफी अच्छा है.
सुगंधित और पतला चावल खाने वाले किसानों की कमी नहीं हैं.
किसान खुद अपने खेतों में दूसरा धान उगा रहे हैं, लेकिन खरीद कर सुगंधित और पतला चावल ही खा रहे हैं. इन किसानों का कहना है कि उगाओ या खरीद के खाओ मतलब एक ही है.
एक एकड़ में जितना सुगंधित धान होता है, उससे दोगुना हाईब्रिड का उत्पादन होता है. इसे बेचकर छत्तीसगढ़ के बाहर से आने वाला पतला चावल खरीद लेते हैं. इनमें एचएमटी और श्रीराम चावल की मांग खूब रहती है.
दुर्ग जिले के जामगांव (एम) के किसान आनंद पांडेय 80 एकड़ में धान की खेती करते हैं, जिसमें से केवल 2 से 3 एकड़ में ही सुगंधित धान लगाते हैं.
लगभग 5 एकड़ में पतली किस्म की एचएमटी और श्रीराम लगाते हैं.
बाकी में स्वर्णा और हाईब्रिड किस्म की रोपाई और बुवाई करते हैं.
आनंद पाण्डेय कहते हैं कि परंपरागत सुगंधित धान की किस्मों को लगाने से उत्पादन कम होता है. इसलिए किसान उन्हें लगाना पसंद नहीं कर रहे हैं. इन किस्मों को लगाने में खर्च भी अधिक आता है. कम रकबा वाले किसान तो इसके बारे में सोचते भी नहीं.
श्री पांडेय ने बताया कि इस साल उन्होंने लगभग तीन एकड़ में जवाफूल और कनक जीरा लगाया है. अपने उपयोग के लिए रखने के बाद बाकी को चावल बनाकर बेच देते हैं.
पिछले साल तक 5500 रुपए प्रति क्विंटल में इसे बेच रहे थे. इस साल 5800 से 6000 रुपए प्रति क्विंटल तक बेचने का लक्ष्य है.
आनंद पांडेय कहते हैं-“पहले दुबराज धान भी लगाया करते थे, लेकिन अब दुबराज का चावल मोटा आने लगा है. कृषि केंद्र से पतला बीज लाते हैं, लेकिन फसल होने के बाद उसका चावल आकार में काफी मोटा दिखाई देता है. इसके कारण इसे बेचने में दिक्कत होती है.”
धान की ज्यादा पैदावार की होड़ में एक ओर किसान उन्नत और हाईब्रिड खेती को अपना रहे हैं, वहीं दुर्ग जिले के पाटन ब्लॉक के ग्राम अरकार के किसान संजय प्रकाश चौधरी परंपरागत धान की किस्मों को सहेजने में लगे हुए हैं.
उन्होंने धान की कई देसी किस्मों को सहेज कर रखा है.
उनके पास काला नमक, कालीमूछ, दुबराज, विष्णु भोग, जीराफूल, बादशाह भोग, इद्रभेष, मौजिक साईस, अरकार पतला, संजनी आदि 11 प्रकार की देशी सुगंधित धान की किस्में हैं.
छत्तीसगढ़ सरकार से डॉ. खूबचंद बघेल पुरस्कार प्राप्त संजय प्रकाश चौधरी का कहना है कि उन्हें विलुप्त हो रही धान की प्रजातियों को सहेजने में काफी अच्छा लगता है. जहां भी नई धान की वेराइटी दिखती या मिलती है, वे उसे एकत्रित कर लेते हैं.
श्री चौधरी 1996 से खेती कर रहे हैं और परंपरागत बीजों को जिंदा रखने के लिए हर साल इन किस्मों को लगाते भी हैं.
उन्होंने बताया कि जैविक तरीके से ही सुगंधित धान की खेती की जा सकती है. रसायन से देसी धान का गुण-धर्म बदल जाता है, साथ ही उत्पादन भी कम होता है.
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