कलपर, कांकेर | संवाददाता: कलपर गांव की ओर जाने वाली सड़क और पगडंडियां कहीं नहीं पहुंचाती. एकाएक ख़त्म हो जाने वाली इन सड़कों और पगडंडियों को छोड़ कर, बार-बार भुल-भुलैया वाला घना जंगल ही, कलपर गांव तक पहुंचने में मदद करता है.
इसी कलपर गांव के पास की पहाड़ी पर इस साल 16 अप्रेल को सुरक्षाबलों ने 29 माओवादियों को एक मुठभेड़ में मारने का दावा किया था. मध्यभारत में पहली बार किसी एक मुठभेड़ में इतनी बड़ी संख्या में माओवादी मारे गए थे.
इस मुठभेड़ के बाद पहली बार इस इलाके में सड़क निर्माण का काम चल रहा है. 2.31 करोड़ की लागत से कंदाड़ी से आलदंड तक 7.5 किलोमीटर सड़क का काम शुरु हो चुका है. कंदाड़ी से 6 किलोमीटर ब्रेहबेड़ा तक 6 किलोमीटर सड़क का काम भी चालू हो चुका है.
सैकड़ों की संख्या में सुरक्षाबल के जवान तैनात हैं और इस इलाके में परिंदा भी पर नहीं मार सकता. लेकिन यह आशंका बनी हुई है कि तेज़ बारिश, जल्दी सड़क बनाने की उम्मीद पर पानी फेर सकती है.
कांकेर से लगभग सवा सौ किलोमीटर पखांजूर और फिर वहां से 27 किलोमीटर दूर छोटेबेठिया होते हुए बेचाघाट तक तो जाना बहुत मुश्किल नहीं है लेकिन कोटरी नदी को पार करते हुए ही यह समझ में आ जाता है कि आगे की राह आसान नहीं है.
अप्रेल के महीने में मुठभेड़ के अगले दिन जब कोटरी नदी के अलावा तेरह बरसाती नालों को पार करके, हम इलाके में घुसे थे, तब माओवादियों द्वारा लकड़ी से बनाया गया प्रवेश द्वार मिला था, जिसमें चुनाव बहिष्कार की चेतावनी लिखी हुई है.
जंगल में इधर-उधर से होते हुए, हम कलपर के आमाटोला पहुंचे थे, जहां माओवादियों ने अपने साथियों की स्मृति में कांक्रीट के नए-पुराने कई शहीद स्मारक बना रखे थे. इनमें से तीन तो पुराने थे लेकिन एक स्मारक पर पिछले साल की तारीख़ दर्ज थी-31 मई 2023.
यह माओवादियों की सेंट्रल कमेटी के सदस्य आनंद ऊर्फ कटकम सुदर्शन का स्मारक था, जिस पर सुदर्शन का नाम अंकित था.
वही कटकम सुदर्शन, जिसके निधन की खबर पिछले साल 4-5 जून को सारे अखबारों, टीवी चैनलों ने छापी दिखाई थी और माओवादियों द्वारा कटकम सुदर्शन के निधन का वीडियो प्रसारित किया था.
इस साल जब माओवादियों ने कटकम सुदर्शन की बरसी पर सुदर्शन की जीवनी छापी तो अल्पस्मृति वाले मीडिया ने फिर से निधन की खबर को छापते-प्रसारित करते बताया कि 13 महीने बाद माओवादियों ने अपने साथी के निधन की बात स्वीकार की है !!
दिन ढलने को है और इसी गांव के रहने वाले एक आदिवासी किसान अपने गाय-बैलों को चराई वाले मैदान से, घर की ओर ले जाने की तैयारी कर रहे हैं.
वे अप्रेल की मुठभेड़ की घटना से अपनी अनभिज्ञता दर्शाते हुए कहते हैं-“दोपहर को मैं खाना खा कर सो गया था. आपसे गलत क्यों कहूंगा, सच ही कहूंगा. मुझे कुछ नहीं पता.”
ऐसे हुई थी मुठभेड़
पुलिस का दावा है कि 15 अप्रेल की रात पुलिस ने माओवादियों के इस ‘लिबरेटेड ज़ोन’ जैसे इलाके में ऑपरेशन की तैयारी की और तड़के, सीमा सुरक्षा बल और डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्ड के जवान सैकड़ों की संख्या में छोटेबेठिया थाने से कलपर के लिए पैदल रवाना हुए.
कोटरी नदी पार करने के बाद कंदाड़ी गांव है और उससे आगे जंगल के रास्ते में कलपर गांव आता है. कलपर से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर हिदूर गांव है. इन्हीं दो गांवों के बीच दाईं ओर पहाड़ियां हैं, जहां मुठभेड़ हुई. दूसरी तरफ़ नारायणपुर ज़िले का हापाटोला है. कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर महाराष्ट्र का गढ़चिरौली का इलाका शुरु हो जाता है. यह ज़िला भी माओवाद प्रभावित है.
पुलिस के अनुसारसुरक्षाबलों की टीम ने चारों तरफ़ से इस पहाड़ी को घेर कर चढ़ाई शुरु की और 16 अप्रेल की दोपहर दो बजे के आसपास माओवादियों के साथ मुठभेड़ शुरु हुई. शाम पांच बजे बस्तर पुलिस ने जो विज्ञप्ति जारी की, उसमें सुरक्षाबलों के तीन जवानों के घायल होने और बड़ी संख्या में माओवादियों के मारे जाने की प्रबल संभावना जताई गई.
लगभग दो घंटे बाद बस्तर के आईजी सुंदरराज पी के हवाले से 18 माओवादियों के मारे जाने की ख़बर आई और कुछ ही घंटों बाद पुलिस ने 29 माओवादियों के शव बरामद करने का दावा किया.
रात को ही मौके से गाड़ियों में शवों को भर कर पुलिस की टीम छोटेबेठिया और पखांजूर पहुंच गई.
इस जंगल के सन्नाटे में दोपहर से लेकर शाम तक कई घंटों की गोलीबारी, रात तक सैकड़ों जवानों, एंबुलेंस और शवों को लेकर गाड़ियों की आवाजाही हुई थी लेकिन माओवादियों के प्रभाव वाले इस इलाके में कोई इस मुद्दे पर बात नहीं करना चाहता.
कलपर गांव के एक युवा बहुत साफ़गोई से स्वीकार करते हैं कि गांव में लोग हमेशा डरे रहते हैं. लेकिन यह डर किससे है? इस सवाल का जवाब देने के बजाय वे अपने पैर के एक अंगूठे से दूसरे अंगूठे को इस तरह रगड़ने लग जाते हैं, जैसे उस अंगूठे में मिट्टी लगी हुई हो.
इस इलाके में जगह-जगह माओवादियों के स्मारक हैं.
माओवादियों का दबदबा
कलपर और उसके आसपास के इलाके में कई जगह ऐसे छोटे-बड़े स्मारक बने हुए हैं. कुछ जगहों पर टीन के बड़े-बड़े बोर्ड पेड़ों के सहारे लटकाए गए हैं या धरे हुए हैं, जिनमें पीपुल्स गुरिल्ला आर्मी के आंदोलन को और तेज़ करने का आह्वान किया गया है.
थोड़ा आगे जाने पर हमें माओवादियों के कुछ और स्मारक नज़र आते हैं, जिन पर झंड़ा लगा हुआ है. एक जगह चुनाव बहिष्कार की पुरानी अपील टंगी हुई नज़र आ रही है.
इलाके में माओवादियों के असर का हाल ये है कि पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में हिदुर गांव के 146 में से केवल 9 लोगों ने मतदान किया था. चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि छिंदपदर, दोनहुर, खैरीपदर, आमाटोला के 334 में से केवल 3 लोगों ने मतदान किया था.
पड़ोसी गांव सितरम के गोडपारा, सितरम छिंदपर, सितरम कोपिनगुण्डा, बंगोघोडिया, कंदाडी, राजामुण्डा, हिदुर, सितरम पटेलपारा, सितरम पल्लोटोला के कुल 1113 लोगों में से केवल 6 लोगों ने मतदान किया था.
सुरक्षाबलों की कोशिश है कि माओवादियों के चुनाव बहिष्कार के नारे को तोड़ा जाए और इलाके में सरकार की उपस्थिति दर्ज कराई जाए.
यही कारण कि इस साल बरसात में भी माढ़ के इलाके को घेर कर माओवादियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन चलाने की तैयारी है. जगदलपुर में पुलिस अधिकारियों से बात करें तो उनके हौसले बुलंद नज़र आते हैं और वे आर-पार की लड़ाई की मुद्रा में हैं.
लेकिन माओवादियों के ख़िलाफ़ चल रही इस लड़ाई में कई जगह निर्दोष आदिवासियों के भी मारे जाने को लेकर सवाल बने हुए हैं.
यह अनायास नहीं है कि बेचाघाट में एक चाय दुकान से लगी सड़क पर किसी की प्रतीक्षा में खड़े बुजुर्ग कुले, फोर्स और माओवादी, दोनों की इस वर्दी को गांव के लिए सबसे बड़ा अभिशाप मानते हैं.
वे समझाने वाले अंदाज में कहते हैं-“वर्दी से मुकाबला करने के लिए वर्दी पहुंची और दोनों ही वर्दियों के पीछे आदिवासी हैं. गोली जिधर से भी चले, मारा तो आदिवासी ही जाता है.”
कुले अपने बात पूरी कर निर्विकार भाव से सामने देखने लग जाते हैं, जहां कोटरी नदी के दूसरी ओर से पुलिस की गाड़ियां सन्नाटे को तोड़ती हुई चली आ रही हैं.
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