“चवन्नी तो बहुत दिनों से बंद हो गई है।लेकिन कुछ लोगों के पर्स के कोने में अभी भी शगुन के रूप में पड़ी हुई है। शायद कभी किसी ने शगुन में सवा रुपए भेंट किए होंगे …। सो एक रुपया के साथ चवन्नी भी पर्स में अब तक शोभायमान है।मार्केट में भले ही चवन्नी बंद हो गई हो..।
लेकिन पर्स में पड़े- पड़े चवन्नी को कई बार लगता है कि क्या वह भी एक रुपया के बराबर की हैसियत हासिल कर सकती है….? जब ऐसी इच्छा भीतर से ज़ोर मारती है तो छोटा सा सिक्का भी उछलने लगता है….। और कभी-कभी चवन्नी की यह दिली तमन्ना रुपैय्ये को भी अपने होने का अहसास करा देती है । तब रुपैय्ये को भी सोचना पड़ जाता है कि कहीं सच में आत्मा जाग गई तो चवन्नी भी एक दिन मेरे बराबर तो नहीं आ जाएगी…।”
यह कोई पहेली नहीं है। बल्कि बच्चों की पत्रिका में छपी छोटी सी प्रतिकात्मक कहानी का हिस्सा है। जिसकी झलक चुनावी माहौल में बिलासपुर जिले के एक इलाक़े में एक पार्टी के ज़मीनी कार्यकर्ताओं को देखने को मिली और वे चटखारे लेकर एक – दूसरे को यह किस्सा सुना रहे हैं।
दरअसल हुआ यह कि ज़िले की एक विधानसभा सीट के लिए उम्मीदवार का नाम तय करने के लिए पैनल तैयार करते समय वहां के कद्दावर नेता ने सोचा कि सिंगल नाम भेजने की बज़ाय एक दो और नाम पैनल में जोड़ दिए जाएं। अपने एक पुराने साथी का चेहरा उनके ज़ेहन में आया ।
उन्हे लगा कि पुराना वाफ़ादार साथी है….. और जिस तब़के से उसका नाता है, उसे देखते हुए टिकट का फैसला करते समय पार्टी उनके नाम पर विचार भी नहीं करेगी। यानी अपने पुराने प्यादे से उन्हे कोई ख़तरा नजर नहीं आया । लिहाज़ा पूरे भरोसे के साथ उन्होने यह नाम जोड़ने दिया । अपने हर छोटे – बड़े काम में शरीक रहने वाले प्यादे की वफ़ादारी पर कद्दावर नेता को शक की कोई गुंज़ाइश नज़र नहीं आई।
लेकिन उसके बाद कहानी आगे बढ़ी तो चवन्नी के अंदर से रुपए की बराबरी करने की दबी- छुपी पुरानी तमन्ना जाग उठी और एक नया सीन सामने आ गया । कुछ ऐसा हुआ कि उम्मीदवारों के नामों का पैनल “ऊपर” जाने के बाद कार्यकर्ताओं का मन टटोलने और ज़मीनी हक़ीकत से रू-ब-रू होने के लिए पार्टी के सेन्ट्रल लेबल के एक बड़े नेता इलाक़े के दौरे पर पहुंचे ।
मौक़ा देखकर चौका मारने में उस्ताद चवन्नी साहब को यहां भी रुपए की बराबरी पर आने का बढ़िया मौक़ा नज़र आने लगा। वो तो अपनी पार्टी के कार्यकर्मों में भी फ़ोटू ख़िचाने का कोई भी मौक़ा नहीं चूकते। हर जगह मुंडी घुसा देते हैं … नेताजी की फ़ोटू आए या ना आए , उन्हे अपनी फोटू का पूरा ध्यान रहता है और कैमरे की तरफ़ नज़र जमाए रहते हैं।
बहरहाल इस मौक़े पर नजर जमाकर उन्होने दिल्ली वाले नेताजी के सम्मान में अपने घर पर दोपहर भोज की पेशकश कर दी । उन्हे लगा कि लगे हाथ दिल्ली वाले नेताजी को अपना आलीशान मकान भी दिखा देंगे और टिकट के लिए लॉबिंग करने का माहौल बन जाएगा।
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अपने वफ़ादार साथी की इस पेशकश को रूटीन समझकर कद्दावर नेता ने हामी भर दी।लेकिन ठीक समय पर भोज के लिए काफ़िला उनके घर पहुंचा तो वहां का सीन देखकर दंग रह गए । जहां उनके इलाक़े के कई पार्टी पदाधिकारी और कार्यकर्ता फूल लेकर खड़े थे ।हैरत हुई कि जिन लोगों को मीटिंग के लिए बुलाया गया है, वे सब यहां कैसे पहुंच गए…..?
वे लोग किसके कहने पर और क्यों यहां आए हैं…? उनसे पूछा तो पता लग गया कि आख़िर माज़रा क्या है। टिकट के ख़्वाब को सचाई में बदलने के लिए वफ़ादार साथी ने ही सबको पहले से अपने घर पर इकट्ठा कर रखा था और उनके हाथों में फूल देकर अपने हाथ मज़बूत करने की पक्की तैयारी कर ली थी । मंज़र भांपकर नेताजी ने पार्टी वालों को मीटिंग में पहुंचने की हिदायत दी । पैनल में नाम जोड़ने के बदले मिली इस सीख को सीने में पत्थर की माफ़िक ऱखकर वापस लौटे ।
पता नहीं… कहानी यहीं पर ख़त्म हो गई है या आगे चलती चली जा रही है। लेकिन शगुन की चवन्नी अब भी उनके पर्स पर ही धरी हुई है…. इस इंतज़ार में कि एक दिन मुझे भी रुपया बनना है…।
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