छत्तीसगढ़ चुनाव 2023: राज्य में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा कई क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव लड़ रही हैं। आइए समझते हैं कि उन पार्टियों का दावा कितना मजबूत है और वह कांग्रेस या बीजेपी के सामने कैसी चुनौती पेश कर पा रही हैं।
राज्य की स्थापना के बाद से लेकर अब तक छत्तीसगढ़ का चुनाव दो ध्रुवों के बीच बंटा रहा है। कांग्रेस और बीजेपी के बीच केंद्रित रहने वाली इस लड़ाई में तीसरी ताकतों ने सेंध लगाने की कोशिशें तो जरुर कीं लेकिन उन्हें उस तरह की सफलता नहीं मिली कि वह पार्टियां इतनी सीटें बटोर लें कि सीटों के लिहाज से इस छोटे प्रदेश में वह किंग मेकर बन सकें या किसी प्रकार के मोल-भाव की स्थितियों में आ जाएं। 2003 के पहले विधानसभा चुनावों से लेकर 2018 के विधानसभा चुनावों तक जाति या किसी समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली यह क्षेत्रीय पार्टियां सीट पाने के मामले में अब तक कोई बड़ी लकीर नहीं खींच सकी हैं। ना ही इन पार्टियों का प्रदर्शन इतना महत्वपूर्ण रहा है कि कांग्रेस और बीजेपी के माथे पर कोई राजनीतिक शिकन पड़े। पर इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि ये पार्टियां खेल बिगाड़ने की हैसियत नहीं रखतीं। छोटी-छोटी मार्जिन से होने वाली चुनावी जीत-हार में इन पार्टियों को मिला वोट कई बार निर्णायक साबित होता रहा है।
अजीत जोगी ने जब 2016 में कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाई थी तब इस बात के कयास तेजी से लगने शुरू हुए थे कि क्या इस बार छत्तीसगढ़ में त्रिंशकु के हालात होंगे। 2018 के चुनावों में पहली बार ऐसा लगा था कि राज्य में बीजेपी या कांग्रेस स्पष्ट बहुमत नहीं ला पाएंगी। खुद अजीत जोगी अपनी सभाओं में इस बात का बारम्बार दावा करते थे कि बिना उनके राज्य में किसी की सरकार नहीं बनेगी। अजीत जोगी की पार्टी ने बसपा के साथ समझौता किया। चुनाव में उनकी पार्टी को पांच और बसपा को दो सीटें मिलीं। यह सात सीटें महत्वपूर्ण हो सकती थीं लेकिन कांग्रेस को मिले प्रचंड बहुमत के बाद यह सात सीटें औचित्यहीन हो गईं।
अब छत्तीसगढ़ फिर से चुनावों के समर में हैं। बस्तर संभाग की बीस सीटों पर वोटिंग हो चुकी है। बची 70 सीटों पर 17 नवंबर को वोट पड़ने हैं। इस बार अजीत जोगी नहीं हैं। उनके पुरानी राजनीतिक पार्टनर बसपा का गठबंधन किसी और दल के साथ है। अमित जोगी राज्य की कुछ सीटों को छोड़कर करीब-करीब सभी पर ताल ठोंक रहे हैं। आम आदमी पार्टी दूसरी बार राज्य में चुनाव लड़ रही है। जाति और समाज की राजनीति करने वाले कुछ नए-पुराने खिलाड़ी नए दावों के साथ चुनावी समर में हैं। आइए समझते हैं कि क्या ये पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस की पारंपरिक सत्ता को चुनाती देते हुए इतनी सीटें बटोर सकती हैं कि यह दोनों राष्ट्रीय दल चुनाव के बाद इनके समर्थन के मोहताज हो जाएं। क्या राज्य में किसी भी तरह के त्रिंशकु के हालात बन सकते हैं?
अजीत जोगी के द्वारा बनाई गई पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ इस बार 84 सीटों पर लड़ रही है। खुद अमित जोगी पाटन सीट पर मुख्यमंत्री के खिलाफ ताल ठोंक रहे हैं। 2018 के चुनाव में जोगी कांग्रेस, बसपा और सीपीआई के गठबंधन को 11 फीसदी वोट मिले थे। पांच सीटें अजीत जोगी की पार्टी को और दो सीटें बसपा को मिलीं थीं। इस बार राजनीतिक समीकरण बदले हुए हैं। अजीत जोगी नहीं रहे। अजीत जोगी के साथ कांग्रेस छोड़कर आए बहुत सारे नेता या तो कांग्रेस में लौट गए या फिर उन्होंने कोई दूसरा ठिकाना तलाश लिया। बसपा इस बार जोगी की पार्टी के साथ नहीं है। इन बदले हुए राजनीतिक हालातों पर जोगी की पार्टी किस तरह चुनाव का प्रबंधन कर रही है इस पर वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समालोचक दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं कि पिछले चुनाव में अजीत जोगी ऐसा माहौल रचने में सफल रहे थे जहां दोनों पार्टियों को यह लग रहा था कि अजीत कुछ सीटें जीतने में सफल हो सकते हैं। इस बार का माहौल ऐसा नहीं है।
राजनीतिक गलियारों में अमित जोगी पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप है। टिकट देने में भी उन्होंने सात साल पुरानी पार्टी के कार्यकर्ताओं के बजाय बीजेपी और कांग्रेस के बागी नेताओं को चुना है। जिसमें ज्यादातर कांग्रेस के बागी हैं। कुछ सीटें ऐसी हैं जहां वह कांग्रेस को असहज तो कर सकते हैं लेकिन वह चुनाव में बहुत महत्वपूर्ण असर डाल पाएंगे ऐसा होता नहीं दिख रहा है। वरिष्ठ टीवी पत्रकार बरुण सखाजी इसमें कुछ बातें और जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि अमित जोगी ने खुद पाटन सीट से लड़कर चुनाव को रोचक तो बना दिया है लेकिन पूरे प्रदेश में वह कोई माहौल बना पाए हैं ऐसा होता नहीं दिखता। ज्यादातर प्रत्याशी मुख्य लड़ाई से बाहर हैं। रेणु और रिचा जोगी की सीट खुद भी त्रिकोणीय मुकाबले में फंसी है। हालांकि उन्हीं स्थिति बाकी उम्मीदवारों से बेहतर है।
कांशीराम के जमाने से ही राज्य में जड़े जमाने वाली बहुजन समाज पार्टी इस बार फिर से छत्तीसगढ़ में ताल ठोंक रही है। बीते चुनाव में अजीत जोगी की पार्टी से गठबंधन करने वाली बसपा इन चुनावों में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ एलांयस में है। बसपा 58 तो गोडंवाना गणतंत्र पार्टी 32 सीटों पर लड़ रही है। बसपा का प्रभाव हमेशा से ही बिलासपुर संभाग में रहा है। प्रदेश में कई ऐसी सीटें हैं जहां बसपा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं कि बसपा का आधार दलित है। पिछले दो चुनावों से उसकी कोशिश उस दलित वोट में आदिवासी वोटों को जोड़ने की है। 2018 के चुनावों में उसने अजीत जोगी की पार्टी से एलायंस किया। उसे दो सीटें मिलीं और कई सीटों पर उसके वोटों में भी इजाफा हुआ।
इस बार उसने राजनीतिक पार्टनर बदल दिया है। आदिवासी वोटों में पैठ का दावा करने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ उसका गठबंधन है। अभी तक का जो माहौल राज्य में बन रहा है उसमें इस गठबंधन का प्रभाव सीमित सीटों पर दिख रहा है। हो सकता है कि कई सीटों पर वह मुख्य पार्टियों का नुकसान करे जिसमें कांग्रेस के नुकसान की संभावना ज्यादा है, लेकिन यह कहना मुश्किल होगा कि इस गठबंधन की सीटें इतनी आएंगी कि वह बीजेपी या कांग्रेस को असहज करे। दिवाकर मुक्तिबोध इसकी वजह स्थानीय नेतृत्व का ना होना बताते हैं। राज्य में बसपा ऐसा कोई नेता विकसित नहीं कर पाई जो कुछ सीटों पर अपने प्रभाव को लगातार बनाकर रख पाया हो। जिन सीटों पर दलितों की संख्या कम है उन सीटों पर बसपा का कोई प्रभाव नहीं है। इसी तरह शहरी सीटों में भी बसपा का प्रभाव नहीं है। हीरा सिंह मरकाम के निधन के बाद यही हाल गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का है।
आम आदमी पार्टी दूसरी बार छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में ताल ठोंक रही है। आम आदमी पार्टी बीते दस बरस में राज्य में सक्रिय रही है। अरविंद केजरीवाल ने यहां पर एक राष्ट्रीय अधिवेशन भी किया। दस प्वाइंट का घोषणा पत्र भी जारी किया। अब जब चुनाव अपने पीक पर हैं तो वह आम आदमी पार्टी किस तरह से चुनावों को लड़ रही है इस सवाल पर दिवाकर मुक्तिबोध कहते हैं कि अभी तक के ट्रेंड को देखकर लग रहा है आम आदमी पार्टी किसी भी सीट को अपने पक्ष में त्रिकोणीय बनाने में सफल नहीं दिख रही है। अपवाद को छोड़ दें तो वह चुनाव के समीकरणों से वह करीब-करीब बाहर है।
वरिष्ठ पत्रकार रवि भोई भी कुछ ऐसी ही राय रखते हैं। रवि कहते हैं कि आम आदमी पार्टी सिर्फ वोट काटने की हैसियत में दिख रही है। वह कांग्रेस और बीजेपी दोनों के वोट काट सकती है लेकिन वह इन दोनों पार्टियों का कोई बड़ा नुकसान करेगी ऐसा नहीं कह सकते। छत्तीसगढ़ की चुनावी राजनीति को समझने वाले राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि आम आदमी पार्टी ने चुनावों से ठीक पहले ही अपने रफ्तार सुस्त कर दी है। यह उनका राजनीतिक गेम प्लान भी हो सकता है। चुनाव प्रचार के दौरान भी आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय नेता बहुत सक्रिय नहीं हैं। केजरीवाल भी अभी तक सिर्फ एक बार ही चुनाव प्रचार के लिए आए हैं।
इन दलों के अलावा कुछ और छोटी पार्टियां भी छत्तीसगढ़ के चुनावों में दावेदारी प्रस्तुत कर रही हैं। बस्तर के भानु प्रतापपुर के उपचुनाव में 22 हजार वोट पाकर चर्चाओं में आने वाली हमर राज पार्टी भी एक ऐसी दावेदार है। इस पार्टी के प्रमुख अरविंद नेताम एक दर्जन से अधिक सीटों पर पार्टी के दबदबे का दावा करते रहे हैं। इसके अलावा छत्तीसगढ़ क्रांति सेना से बनी जोहार छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष अमित बघेल ने प्रदेश की 46 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए हैं। वह 44 बिंदुओं पर अपनी पार्टी का घोषणा पत्र भी लॉन्च कर चुके हैं। इन छोटी पार्टियों की कोशिशों पर टीवी पत्रकार बरुण सखाजी कहते हैं कि उपचुनावों में यह पार्टियां जरुर दमखम दिखाती हैं लेकिन मुख्य चुनाव में जब चुनाव अपने निर्णायक मुकाम पर पहुंच जाता है तो उस दौड़ में यह पार्टियां पीछे छूटने लगती हैं। अभी के राजनीतिक वातावरण को देखकर यह लगता है कि यह पार्टियां भले खुद सीटें ना जीते लेकिन वह दोनों बड़ी पार्टियों का नुकसान जरूर कर सकती हैं। इसमें ज्यादा नुकसान कांग्रेस का होना तय माना जा रहा है।
क्या बढ़ेगा वोट बैंक
2018 के चुनाव परिणाम को देखा जाए तो कांग्रेस का वोट शेयर 43 प्रतिशत था और बीजेपी का 32 प्रतिशत। बीजेपी और कांग्रेस के वोट में दस प्रतिशत का अंतर था। लेकिन मत प्रतिशत का यह अंतर सीटों में प्रतिबिंबित नहीं हुआ। कांग्रेस 68 सीटों पर चुनाव जीती और बीजेपी 15 सीटों पर अटक गई थी। उधर जोगी कांग्रेस,बसपा, सीपीआई के गठबंधन को 11 प्रतिशत वोट मिले थे। बाकी अन्य छोटे-छोटे दलों का वोट प्रतिशत भी जोड़ लिया जाए तो यह करीब 14 प्रतिशत पहुंचता है। इसमें यदि निर्दलीय वोटों को भी जोड़ लें तो यह 23 प्रतिशत होता है। राजनीतिक टीकाकार मानते हैं कि इस बार इस वोट प्रतिशत में कुछ इजाफा हो सकता है। भले ही यह पार्टियां इसे सीट में कन्वर्ट ना कर सकें लेकिन इस चुनाव में उनका मत प्रतिशत बढ़ा हुआ नजर आ सकता है।
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