लखनऊ/बिहार सरकार ने बीते दिनों जातीय जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक कर सियासत में एक नई हलचल पैदा कर दी है। जहां विपक्ष इसे ब्रह्मास्त्र मान रहा है, वहीं सतारूढ़ दल हिंदुओं को बांटने की साजिश सिद्ध करने में जुटा है। कुछ राजनीतिक जानकर इसे मंडल बनाम कमंडल की राजनीति वापस आने का दौर बता रहे हैं।
राजनीतिक जानकार बताते हैं कि जनगणना के आंकड़े तो आ गए हैं, ऐसे में अब संख्या के हिसाब से आरक्षण की मांग उठना लाजिमी है। इसके साथ ही दूसरे राज्यों में भी इस प्रकार के आंकड़े जारी करने का दबाव हो सकता है। इन आंकड़ों के असर को देखने के लिए राजनीतिक दल अभी पांच राज्यों के चुनाव परिणाम का भी इंतजार कर रहे हैं।
गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक व प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो. बद्री नारायण का कहना है कि जातीय जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक कर मंडल कमंडल का दौर वापस करने की एक कोशिश तो है, लेकिन 1980 से अब तक समय में बहुत बदलाव आ गया है। लोगों में अब नई तरह के सामाजिक परिदृश्य और आकांक्षा आई है। मुझे नहीं लगता है कि इसका बहुत बड़ा राजनीतिक असर होगा। इसका कुछ असर होगा, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। इस पर चर्चा होगी। अन्य राज्यों पर दबाव पड़ेगा। विपक्ष इसे राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा बनाने का प्रयास करेगा। लेकिन भाजपा बहुत अच्छे से इस मुद्दे को हल कर सकती है। इस मुद्दे की काट ढूंढ लेगी।
उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर मुखर होने वाले तपके ही इसका अच्छे से फायदा ले रहे हैं। उसी रिपोर्ट में है कि 1000 से ज्यादा जातियां हैं जिन्हें आरक्षण का एक बार भी फायदा नहीं मिला है। 1500 जातियां हैं, जिन्हें एक बार फायदा मिला है। 26 जातियों की विधानसभा में सात प्रतिशत उपस्थित है। अब तो वे जातियां भी बोलेंगी, उनका भी तपका खड़ा होगा। वो बोलेगा तो समाजिक न्याय की राजनीति को होरिजेंटल होना पड़ेगा, अभी वह वर्टिकल है। अभी जो शक्तिमान है, वो इसका फायदा ले रहा है। जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी नहीं हो पा रही है। उसका ज्यादा दलितों में चार पांच जातियां और पिछड़ों में पांच से छह सात जातियों को फायदा मिला है।
बद्री नारायण कहते हैं दलितों में कुछ जातियां हैं जिन्हें योजनाओं और पॉलिसी का फायदा हुआ है। दलितों में करीब 40 जातियां हैं, जिन्हें अभी तक कोई लाभ नहीं मिला है। इसे अभी जारी करने के पीछे सिर्फ राजनीतिक मकसद है।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि 1987- 88 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट आई थी। तब ऐसा माना जा रहा था कि भाजपा ने राममंदिर के लिए यात्रा और आंदोलन चला रखा था। पूरे हिंदू समाज को एकजुट होने से रोकने के लिए यह कोशिश हुई थी। 1989 से जो पिछड़ों की राजनीति का दौर आया वो पीक पर पहुंच गया। केंद्र में केवल एक बार ही अटल बिहारी की सरकार आ पाई थी। फिर दस साल कांग्रेस की सरकार चली। अब जब धीरे धीरे भाजपा केंद्र में और राज्यों में मजबूत हो गई है। जब से इंडिया गठबंधन बना है तब से उनका फोकस इन्ही वोटरों पर है। दो बार की बैठकों में इस बात पर मंथन हुआ होगा कि भाजपा के हिंदू समाज के स्ट्रांग वोटर को कैसे तोड़ा जाए। कहीं न कहीं विपक्षी को यह संकेत मिले हैं कि 2024 में भी यह वोट जो मोदी के पीछे हैं वो ज्यादा खिसकने वाला नहीं है। यह कहा जा सकता है कि मंडल पार्ट दो की शुरुआत है। एक जुट होते हुए हिंदू समाज को पिछड़े और अति पिछड़े के लिए एक ऐसी स्थिति बने, यह दोनों वर्ग अपने आरक्षण की मांग को लेकर इतने मजबूत हो जाए इनकी हिंदू पहचान पीछे छूट जाए। अगर उनकी हिंदू पहचान छूटेगी तो भाजपा का सपोर्ट बेस कमजोर होगा। इस समय जनगणना के मुद्दे को उभार कर भाजपा के मजबूत वोट बैंक को कमजोर करने का मुख्य मकसद है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. डीआर साहू इस पूरे मुद्दे में कहते हैं कि जातीय व्यवस्था ने भारतीय समाज के ढांचे को प्रभावित किया हुआ। यह केवल उत्तर भारतीय तक सीमित नहीं है। बल्कि यह दक्षिण भारत की राजनीति में बहुत सारे जाति आधारित आंदोलन भी हुए हैं। लोकतंत्र व्यवस्था की सत्ता शक्ति में प्रयोग हुए और सफलता भी मिली है। जहां जातिगत रणनीति में गड़बड़ी हुई है, वहां असफलता मिली है। 2021 की जनगणना होनी है। लेकिन कोविड और अन्य कारणों से नहीं आ सकी है। जनगणना से लोगों को बहुत सी चीजों के बारे में जानकारी मिलती है। सामाजिक ताने बाने के बारे में भी पता चलता है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने जनगणना समिति बना दी है। वह सुप्रीमकोर्ट में प्रस्तुत हुई है। कांग्रेस पार्टी गरीबी, निर्धनता की बाते करती है। उन्हें इस प्लेटफार्म में आना पड़ रहा है। भारतीय समाज में देखते हैं कि राजनीति में टिकट वितरण से लेकर मंत्री पद के विस्तार और संगठन बनाने तक जातीय व्यवस्था पर ही फोकस होता है।
साहू कहते हैं कि जातिगत जनगणना एक रूटीन पर आए तो बेहतर होगा। लेकिन चुनाव के रूप में इसका प्रयोग ठीक नहीं हैं। जातिगत चीजों को बढ़ावा देना स्वस्थ्य समाज के लिए ठीक नहीं है। ज्ञात हो कि बिहार सरकार ने दो अक्टूबर को जातिगत सर्वे के आंकड़े जारी कर दिए हैं। जातिगत सर्वे के मुताबिक बिहार की कुल आबादी 13 करोड़ के करीब है। रिपोर्ट के मुताबिक, अति पिछड़ा वर्ग 27.12 प्रतिशत, अत्यन्त पिछड़ा वर्ग 36.01 प्रतिशत, अनुसूचित जाति 19.65 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति 1.68 प्रतिशत और अनारक्षित यानी सवर्ण 15.52 प्रतिशत हैं।
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