नई दिल्ली, 31 जुलाई (आईएएनएस)। पेन स्टेट कॉलेज ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक शोध में यह बात सामने आई है कि जहां पहले बीमारियों में जेनेटिक कारणों को जिम्मेदार माना जाता था वहां अब इसके पीछे पर्यावरणीय कारक भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं।
नेचर कम्युनिकेशन्स पत्रिका में प्रकाशित इस शोध से पता चलता है कि जीवनशैली और वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारक रोग के जोखिम को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकते हैं, जिससे निवारण के अधिक अवसर मिलते हैं।
सार्वजनिक स्वास्थ्य विज्ञान के सहायक प्रोफेसर बिबो जियांग ने कहा, “हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि आनुवंशिकता और पर्यावरण दोनों रोग को किस हद तक प्रभावित कर सकते हैं।
टीम ने रोग जोखिमों का विश्लेषण करने के लिए आनुवंशिकता और भौगोलिक स्थिति संबंधी आंकड़ों को मिलाकर एक नवीन मॉडल का उपयोग किया।
दाजियांग लियू सह-वरिष्ठ लेखक ने पर्यावरणीय प्रभावों को आनुवंशिक कारकों से अलग करने के महत्व पर जोर देते हुए कहा, ”यदि हम इन साझा वातावरणों को अलग कर सकें तो जो कुछ बचा है वह बीमारी की आनुवंशिकता (एक पीढ़ी (माता-पिता) से दूसरी पीढ़ी (संतान) तक जीन के माध्यम से लक्षणों के हस्तांतरण को अधिक सटीक रूप से दर्शा सकता है।”
आईबीएम मार्केटस्कैन और पर्यावरण संबंधी आंकड़ों का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने विभिन्न रोगों में आनुवंशिक योगदान का पुनर्मूल्यांकन किया।
उदाहरण के लिए, टाइप 2 मधुमेह के आनुवंशिक जोखिम को 37.7 प्रतिशत से 28.4 प्रतिशत तक पुनः मापा गया, जो पर्यावरणीय कारकों की अधिक भूमिका को उजागर करता है। इसी तरह, मोटापे के जोखिम में आनुवंशिक योगदान 53.1 प्रतिशत से घटकर 46.3 प्रतिशत हो गया।
शोध में पीएम2.5 (हवा में मौजूद छोटे प्रदूषक कण) और एनओ2 (नाइट्रोजन डाइऑक्साइड) जैसे विशिष्ट प्रदूषकों के स्वास्थ्य स्थितियों पर पड़ने वाले प्रभावों को भी पहचाना गया। एनओ2 का सीधा असर उच्च कोलेस्ट्रॉल और मधुमेह जैसी स्थितियों पर पड़ता है, जबकि पीएम2.5 का असर फेफड़ों की कार्यप्रणाली और नींद संबंधी विकारों पर पड़ता है।
यह शोध बताता है कि आनुवांशिक और पर्यावरणीय कारकों के बीच संतुलन को समझना रोग की रोकथाम रणनीतियों को बेहतर बना सकता है।
–आईएएनएस
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