बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध का जन्म हिमालय की उपत्यका के शाक्य जनपद-लुंबिनी वन में 563 ई0पू0 हुआ था। शाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु थी। इनके पिता शुद्धोधन शाक्यों के गणमुख्य थे। इनकी माता का नाम माया देवी था। इनका जन्म नाम सिद्धार्थ था। इनका पालन-पोषण. शिक्षा-दीक्षा बहुत उच्च कोटि की हुई । बाल्यावस्था से ही ये चिन्तन शील थे। संसार के दुख से विकल हो उठते थे। जीवन की चार घटनाओं का इनके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ा।
एक बार इन्होंने किसी अत्यंत वृद्ध व्यक्ति को देखा. जिसकी कमर झुकी थी. वह लाठी के सहारे चल रहा था। पूछा कौन है? उत्तर मिला वृद्ध-बूढ़ा कभी सुंदर बालक था. ओैर बली जवान भी. किंतु बुढ़ापे में कमजोर हो गया है। एकदिन रोगी दर्द से कराहता मिला. पूछा कौन है? उत्तर मिला- रोगी. जो पहले कभी स्वस्थ और सुखी था। फिर सिद्धार्थ ने मृतक को अर्थी पर ले जाते हुए देखा- पूछा कौन है- उत्तर मिला – मृतक जो कुछ समय पूर्व जीवित और मस्त था. आज मर गया। अंत में उन्हें एक गैरिक वस्त्र धारण किये पुरूष मिला. जिसके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी. और कोई चिंता न थी। पूछा कौन है? उत्तर मिला- संन्यासी- जो संसार के सभी बंधन छोड़कर परिव्राजक हो गया है। त्याग और संन्यास की भावना सिद्धार्थ को गहराई से छू गई।
शुद्धोधन ने सिद्धार्थ का विवाह रामजनपद-कोलिय गण की राजकुमारी यशोधरा के साथ कर दिया – उनके पुत्र हुआ – उन्होंने उसका राहुल नाम रखकर कहा – ‘‘मेरे विचार-चंद्र को ग्रसने वाला राहु-याने राहुल – जीवन श्रृंखला की एक और कड़ी बन गई।’’
एक दिन रात को माता और राहुल को छोड़कर सिद्धार्थ- शांति. ज्ञान. मोक्ष की खोज में चल पड़े। यह घटना साधारण नहीं – ‘‘महाभिनिष्क्रमण’’ है। ज्ञान और शांति की खोज में सिद्धार्थ साधु. संतों. पंडितों से मिले. परंतु कहीं संतोष नहीं मिला। आश्रम. तपोवन में
घूमते घूमते उसवेल नामक वन में घोर तपस्या आरंभ कर दी. कठोर प्रण किया या तो ज्ञान प्राप्त करूंगा. अथवा शरीर त्याग दूंगा। छह वर्ष की कठिन तपस्या के पश्चात् उन्हें अनुभव हुआ. कि शरीर को कष्ट देने से शरीर के साथ बुद्धि भी क्षीण हो गयी. और ज्ञान भी दूर हट गया। अतः निश्चय किया- ‘कि मध्यम मार्ग का अनुसरण करना ही उचित है’।
एक दिन बोधि वृक्ष के नीचे बैठकर जब वे चिंतन कर रहे थे. तब उन्हें जीवन और जगत् के संबंध में सम्यक् ज्ञान प्र्राप्त हुआ – इस घटना को ‘‘संबोधि’’ कहते हैं। इसी समय से सिद्धार्थ बुद्ध कहलाये (जिसकी बुद्धि जागृत हो गई हो) उन्होंने निश्चय किया कि अपने ज्ञान से दुखी संसार को दुख से मुक्त करूंगा। बोध गया से चलकर वे काशी के पास ऋषि पत्तन – मृगदाध (सारनाथ) पहुंचे – वहां पर उन्होंने पंचवर्गीय पूर्व शिष्यों को अपने धर्म का उपदेश पहली बार दिया- ‘‘यही धर्म चक्र प्रवर्तन’’ कहलाता है।
भगवान बुद्ध ने अपने उपदेश में कहा – दो अतियों का त्याग करना चाहिए। एक तो विलास का जो मनुष्य को पशु बना देता है. और दूसरे कायल्केश का . जिससे बुद्धि क्षीण हो जाती है। मध्यम मार्ग का अनुसरण करना चाहिए-यही मध्यम मार्ग है। इसके पश्चात् उन्होंने चार सत्यों का उपदेश दिया – जिनको ‘‘चत्वारि आर्य सत्यानि’’ कहा जाता है। उन्होंने कहा कि – दुख प्रथम सत्य है। जन्म दुख है। जरा दुख है। अप्रिय का संयोग दुख हेै। समुदाय दूसरा सत्य है। दुख का कारण तृष्णा है। तृष्णा और वासना से ही सब दुख उत्पन्न होते हैं। निरोध तीसरा सत्य है। समुदाय अर्थात् दुख के कारण तृष्णा का निरोध हो सकता है। जो स्थिति कारण से उत्पन्न होती है. उसके कारण को हटाने से वह समाप्त हो जाती है। निरोध का ही नाम निर्वाण अर्थात् संपूर्ण वासना का क्षय है। निरोध गामिनी प्रतिपदा चौथा सत्य है। अर्थात् निरोध प्राप्त कराने वाला एक मार्ग है- वह है अष्टांग मार्ग अथवा मध्यमा प्रतिपदा।
महात्मा बुद्ध प्रथम धर्म प्रवर्तक थे. जिन्होंने धर्म प्रचार के लिए संघ का संगठन किया। सारनाथ में प्रथम संघ बना। बुद्ध ने आदेश दिया- ‘‘भिक्षुओ! बहुजनहिताय बहुजन सुखाय देव. मनुष्य और सभी प्राणियों के हित के लिए उस धर्म का प्रचार करो जो आदि मंगल है. मध्य मंगल है. और अंत मंगल है।’’ अस्सी वर्ष तक अपने धर्म का विभिन्न प्रदेशों में प्रचार करते हुए कुशीनगर में वे दो शाल वृक्षों के बीच अपनी जीवन लीला समाप्त कर निर्वाण को प्राप्त हो गये – यही ‘‘महापरिनिर्वाण’’ है।
यद्यपि बुद्धदेव निरीश्वरवादी थे. और वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास नहीं करते थे. पर उनके व्यक्तित्व का नेैतिक प्रभाव भारतीय इतिहास पर दूरव्यापी रहा। जीवदया और करूणा के वे सजीव मूर्ति थे। आस्तिक परंपरावादी हिंदुओं ने उनको विष्णु का लोक संग्रही अवतार माना और भगवान के रूप में उनकी पूजा की। पुराणों में जो अवतारों की सूची है. उसमें बुद्ध भगवान की गणना होती है। वे विष्णु भगवान के नवम अवतार माने जाते हैं। बुद्ध के पूर्व देशभर में हिंसा की प्रबलता थी। वैदिक यज्ञ और ईश्वर के नाम पर पशु. नर आदि की बलि प्रचलित थी। अतः बुद्ध को ईश्वर और यज्ञ के नाम पर की जाने वाली जीव हत्या का विरोध करना पड़ा। हिंसा के विष को शांत करने के लिए बुद्ध ने नास्तिकता का सहारा लिया. इससे तात्कालिक धर्मरक्षा हुई. और जीव हत्या कम हो गई। उनके उपदेश सरल और आचार परक थे। चार आर्य सत्य के साथ उन्होंने आदेश दिया – बुद्धं शरणं गच्छामि. संघं शरणं गच्छामि. और धम्मं शरणं गच्छामि – भंते. बुद्ध की शरण जा. संघ की शरण जा. धर्म की शरण जा इसी में तेरा कल्याण है।