( डॉ. अजय पाठक )
कविवर केदारनाथ अग्रवाल की पंक्तियां हैं –
मैंने उसको
जब जब देखा
लोहा देखा
लोहे जैसा तपते देखा
गलते देखा, ढलते देखा
मैंने उसको
गोली जैसे चलते देखा
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा जी को याद करते हुए केदार जी की यह पंक्तियां मेरे मन – मस्तिष्क में अचानक उतर आई हैं। मैंने दो दशकों के सानिध्य में डॉ. पालेश्वर जी के संपूर्ण व्यक्तित्व को इन पंक्तियों के करीब ही देखा है। उनका जीवन और उनका संपूर्ण सृजन एक प्रभावी जिजीविषा से संपृक्त होकर अतीत, वर्तमान और भविष्य की सचेतन पड़ताल का हेतु रहा। उनकी सोच, उनकी परिकल्पना और उनकी उपादेयता एक ओर जहां शोत, कांत, और शांत दृष्टि से संपन्न रही, वहीं दूसरी ओर इतिहास के साथ-साथ वर्तमान समय के सापेक्ष भी रही। जीवन के सामाजिक परिवेश में व्याप्त, आकर्षण और विकर्षण, आंधी, अंधड़, झंझावत तथा समयानुकूल बह निकले मलय समीर के सुहावने झोंकों के बीच उन्होंने अपने भीतर के साहित्य – सृजक को अविचल भाव से जीवंत रखा। उनके जीवन की दीपशिखा जलती रही, कांपती, थरथराती, जगमगाती रही और अपने अस्तित्व को बचाती भी रही। उनके भीतर बैठे ‘‘ संत-प्रवृत्त’’ मनीषी की मानस चेतना का यह उछाह उनके जीवन की दीपशिखा के इसी आलोक-आभा की वंदनीय और प्रणम्य परिणति है।
डॉ. पालेश्वर जी देखने में अपनी वेशभूषा और चाल-ढाल तथा व्यवहार में साधारण लगते थे लेकिन बोलते हुए वह असाधारण हो जाते थे, तब लगता था कि कोई ऋषि अपने इर्द-गिर्द बैठे शिष्यों को वेद ऋचाओं की किसी गूढ़ बात का रहस्य समझा रहा हो। दरअसल वह ‘‘भार्गव’’ परंपरा के विद्वान मनीषी थे, जिनकी वाणी में शास्त्र भी शस्त्र की तरह सुशोभित होता था। उनका अध्ययन विषद और व्यापक था, जिसने उन्हें एक समृद्ध वक्ता का सामर्थ्य तो सौंपा ही, लोकोपयोगी और महत्वपूर्ण साहित्य-सृजन की शक्ति भी प्रदान की। लेखन उनके लिए न विलास का विषय रहा, न यश अथवा वैभव और मान-सम्मान प्राप्त करने का उपक्रम। अपनी धरती की अस्मिता के प्रति उनका असीम अनुराग उनके अस्तित्व की अंतरंग विशेषता थी। अपनी समझ के बीच अपनी संस्कृति की खोज के लिए साहित्य में जीने का सुख उनके होते रहने का मर्म था। और यही डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा होने की उपादेयता भी है। वह घुप अंधेरा और धुंध की चादर ओढ़कर आगे पीछे चलने वाले समकालीन लोगों की तरह कहीं विलीन नहीं हुए उसका एकमात्र कारण यह है कि अपनी माटी और थाती की उदात्त संस्कृति से उनका असीम लगाव रहा और साहित्य के प्रति वह एकांत भाव में समर्पित रहे।
डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा से मेरा परिचय उनके लेखन के जरिये ही हुआ। बिलासपुर और रायपुर से प्रकाशित होने वाले अनेक समाचार-समाचार पत्रों में उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे जिन्हें मैं खूब पढ़ा करता था। विशेष कर दैनिक नवभारत में प्रकाशित होने वाला स्तंभ ‘‘गुड़ी के गोठ’’ का मैं सुधी पाठक रहा। अतः मैं उनकी साहित्यिक प्रतिभा से अच्छी तरह वाकिफ था। मेरी मित्र मंडली में शामिल तब के अनेक प्राध्यापकों से उनके विषय में बहुत कुछ सुना भी करता था लेकिन उनसे मेरी प्रत्यक्ष भेंट मार्च 2002 में हुई। हुआ यह कि उन दिनों मेरा पहला गीत संग्रह ‘‘यादों के सावन’’ छप कर आया था, मैं बड़े जोश में था और चाहता था कि पुस्तक का लोकार्पण ऐसे ताम झाम से हो कि वह शहर में चर्चा का विषय हो जाये। इसी क्रम में पंडित राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल (तात्कालीन स्पीकर, छ.ग.विधानसभा ) पंडित श्याम लाल चतुर्वेदी, पंडित रामनारायण शुक्ल, दादा मनीषी दत्त, जनकवि आनंदी सहाय शुक्ल (रायगढ़), डॉ. बलदेव, रमाकांत श्रीवास्तव (खैरागढ़), डॉ. जीवन यदु राही, डॉ. विजय सिन्हा, श्री रामप्रताप सिंह ‘‘विमल’’, श्री महाबीर अग्रवाल, (दुर्ग), डॉ. गोकर्ण दुबे, डॉ. सरोज मिश्र जैसे गणमान्य साहित्य मनीषियों सहित नगर के ख्यातनाम कवि, शायर, कलाकार, पत्रकार और प्रबुद्धजनों को मेंने नेवता दिया था। संग्रह का विमोचन बाबूजी (पंडित राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल) के हाथों होना था। जब मैं उन्हें नेवता देने गया तो उन्होंने मुझसे कहा, पालेश्वर जी को जरूर बुलाना। मुझे उन्हें तो बुलाना ही था, सो मैं उनके निवास स्थान विद्यानगर पहुंचा और संग्रह सहित आमंत्रण पत्र उनके हाथों में सौंपते हुए कार्यक्रम में पधारने का आग्रह लिया। उन्होंने बड़े अनमने भाव से संग्रह को उल्टा पल्टा और कहा – ‘‘ठीक है आउंगा, उसके आगे-पीछे एकदम शांति।
मैं सेना के रंगरूट की तरह टर्न लेकर बाहर निकल आया। अब मेरी दृष्टिपटल पर निराला उतर आये थे। नये रचनाकारों को एकदम से भाव देना उनकी भी आदत में नहीं था। यही स्वभाव पालेश्वर जी का भी था। खैर। पालेश्वर प्रसाद जी उस आयोजन में आये और संग्रह का विमोचन भी पूरे तामझाम से संपन्न हुआ। मैं गद्गद् था किंतु पालेश्वर जी की खामोशी भीतर ही भीतर मुझे साल रही थी, वह एकदम शांत रहे। जैसा कि आम तौर पर होता है, किसी भी कृति का विमोचन हो तो लेखक की प्रशंसा ही होती है मेरी भी हुई, परंतु मैं चाहता था कि संग्रह की समीक्षा हो जिससे मुझे अपनी कमियों और खूबियों को जानने का अवसर मिले, किन्तु वहां ऐसा कुछ हुआ नहीं। बात आई गई हो गई।
इस आयोजन के कुछ हफ्ते बाद अचानक एक दिन सबेरे दुर्ग से महावीर अग्रवाल जी का फोन आया बोले बधाई हो पाठक जी। मैंने कहा – किस बात की ? वह बोले ‘‘नवभारत में गीत संग्रह की समीक्षा छपी है, बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि समीक्षा पालेश्वर जी ने लिखी है, मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं, आपकी रचनाओं में दम है, वरना वह अच्छे अच्छों को भाव नहीं देते’, मैं खामोशी से महावीर जी की बात सुनता रहा और मेरे हृदय से पालेश्वर जी के प्रति श्रद्धा का भाव उमड़ता रहा। सच कहूं तो उनके समीक्षा के आशीष ने सही मायनों मेरे गीतों के सृजन में एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाई है। इसके लिए मैं उन गुणग्राही मनीषी का सदैव आभारी रहूंगा।
समय बीतता रहा और उनसे मेरी भेंट होती रही। उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती रही और मैं उनका स्नेह भाजन बना। इस बीच नगर में आयोजित होने वाले विभिन्न साहित्यिक, सांस्कृतिक आयोजन में उनके पाण्डित्यपूर्ण वक्तव्य सुनने का सुयोग भी बनता रहा। इस दौरान मेरी अनेक कृतियों का विमोचन हुआ जिसमें वह अतिथि के तौर पर शामिल हुए। वह मेरी गीतों के बड़े प्रशसंक थे और मैं उनके अथाह ज्ञान व वकृत्व कला का हिमायती था। उनसे जब भी भेंट होती तो मैं सायाश उनके करीब जा बैठता, ताकि उनके ज्ञान भंडार और पांडित्य का थोड़ा सा अंश प्रसाद के रूप में ग्रहण कर सकूं। उन्हें भी मुझसे बतियाना अच्छा लगता था। सभा-समारोहों में जब भी उनसे मुलाकात होती वह मेरा हाथ पकड़कर अपने करीब बैठा लेते और हममें ढेर सारी बातें होती। एक बार ऐसा हुआ कि बिलासा कला मंच द्वारा आयोजित ‘‘भोरम देव यात्रा’’ के दौरान मैंने जान बूझकर उन्हें अपनी कार में बैठा लिया। बिलासपुर से भोरमदेव जाने और वहां से वापस लौटने के लगभग 4-5 घंटो की यात्रा के दौरान कार में हम दो ही लोग थे। उस एक छोटी सी यात्रा में मैंने छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व के तमाम स्थानों की ऐसी गूढ़ जानकारियां उनके माध्यम से जानी, जिसे हासिल करने में मुझे पचासों किताब और संदर्भ ग्रंथों के पन्ने खंगालने पड़ते। मैं लगातार उन्हें सुनता रहा और वह तल्लीन होकर सब बताते रहे। वह चार-पांच घंटो की यात्रा मेरे जीवन की अविस्मरणीय यात्राओं में से एक है जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा।
पालेश्वर जी छत्तीसगढ़ की माटी के प्रतिक पुरूष थे। उन्हें अपनी धरती से बड़ा प्रेम था। छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति परम्परायें और यहां के लोक जीवन के प्रति उनका असीम अनुराग तब बड़ी मुखरता से प्रकट होता था, जब वह छत्तीसगढ़ की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाले कतिपय ‘‘बाहरी’’ तत्वों की पुरजोर खबर लेते थे। मैंने उन्हें अनेक बार सार्वजनिक मंचों से इस तरह के लोगों के खिलाफ मुखर होते देखा है। छत्तीसगढ़ी लोक भाषा के तो वह चलते-फिरते ‘‘इन्साइक्लोपिडिया’’ ही थे। साहित्यकारों की मंडली में विराजित पालेश्वर जी अक्सर विलुप्त होते छत्तीसगढ़ी शब्दों की व्युत्पत्ति और उसके अर्थ की बारीकियों की ऐसी व्याख्या करते जैसे कोई ऋषि अपने शिष्यों को व्याकरण के गूढ़ सूत्र समझा रहा हो। बिल्कुल पाणिनी की तरह। छत्तीसगढ़ी लोक भाषा के प्रति उनका लगाव इसी से प्रमाणित होता है कि उन्होंने ‘‘तिरिया जनम झन देय’’ ‘‘छत्तीसगढ़ के तीज त्यौहार’’ ‘‘छत्तीसगढ़ी शब्द कोष’’ ‘‘सुसक झन कुररी, सुरता ले’’ ‘‘छत्तीसगढ़ का इतिहास और परंपरायें’’ ‘‘सुरूज साखी रे’’ ‘‘छत्तीसगढ़ परिदर्शन’’ जैसी अनमोल कृतियों का सृजन किया, जिसमें संकलित कहानियों, आलेख और निबंधों में समग्र रूप से छत्तीसगढ़ के लोकमानस की अभिव्यक्ति हुई है। डॉ. पालेश्वर शर्मा ने न केवल छत्तीसगढ़ी में बल्कि हिन्दी में भी खूब लिखा है। ‘‘प्रबंध पाटल’’ शीर्षक से प्रकाशित उनके गद्य संकलन में उनके प्रबुद्ध और समृद्ध चिंतनधारा के सहज दर्शन होते हैं। निबंध शैली में लिखित उनकी इस पुस्तक के शब्द लालित्य और प्रवाहमान शैली से गुजरता हुआ उसका पाठक मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। उनके पास शब्दों का अथाह भंडार था। एक तरह से वह अपने आप में ही समृद्ध शब्दकोश थे। यह इसलिये भी संभव हो सका कि वह स्वयं एक अच्छे पाठक, चिंतक और मननशील व्यक्ति थे। समय-समय पर प्रकाशित उनके फुटकर आलेखों में भी उनका यह पाण्डित्य स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है।
मेरा मानना है कि लेखन कार्य अपने आप में ही एक कठिन प्रक्रिया है और बात जब स्तरीय लेखन की हो यह कार्य जटिलतम हो जाता है। डॉ. शर्मा के लेखन में भाषा की प्रवणता के साथ जिस प्रवाहमय शैली के अक्स दिखाई पड़ते हैं उनके पीछे परिस्थितियों को समझने-परखने का उनका एक विशेष दृष्टिकोण है, जो विशिष्ट है। उनकी यही विशेषता समकालीन विद्धानों से उन्हें अलग और विशिष्ट बनाती है। उनके लेखन में जीवन और समाज के अनुकूल तथा प्रतिकूल तत्वों का एक गतिशील एवं सामंजस्यशील सिलसिला सर्वत्र देखने को मिलता है, यही उनके लेखन की विशेषता है। कहा जाता है कि रचनाकार अपने मानसिक और सामाजिक रचाव के जरिये ही आत्मसंघर्ष से मुक्ति पाता है। डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा जी के लेखन में आत्म संघर्ष का यही रचनात्मक भाव-बोध दिखाई पड़ता है। उनका लेखन उनकी सृजन शक्ति का कलात्मक प्रतिफल है, जिसमें वह बाह्य और अंतर्जगत के अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य और संतुलन स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसका मूल कारण उनका सामाजिक और सांस्कृतिक बोध है।
डॉ. पालेश्वर शर्मा अपने वैयक्तिक जीवन में एक धार्मिक व्यक्ति थे। सनातन परंपराओं में उनकी गहरी आस्था थी किन्तु वह साम्प्रदायिक कभी नहीं रहे। सामाजिक और धार्मिक समरसता का भाव उनके व्यवहार में भी परिलक्षित होता था। वह सबके प्रिय थे और सब उनके प्रिय थे। वह गुणग्राही थे। वह स्वयं संस्कारी व्यक्ति थे और सबको संस्कार बांटते थे।
वह सदैव अध्ययनशील रहे, अध्यापन उनका अध्यवसाय था। उन्होंने न केवल एक कुशल और विद्वान अध्यापक के रूप में देश और प्रदेश में अपनी पहचान बनाई वरन सैकड़ों शिष्यों का भविष्य गढ़ने में प्रभावी भूमिका भी निभाई। उन्हें अनेकानेक प्रतिष्ठित पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हुए जिसके वह हकदार भी थे वह एक सफल गृहस्थ थे जिन्हें भरे-पूरे परिवार की मुखिया होने का सुख मिला।
मेरा अनुभव कहता है कि जीवन और जगत के प्रति आस्थावान लेखक समाज को बहुत कुछ दे सकता है, डॉ. शर्मा का गहरा सांस्कृतिक बोध उन्हें समाज के प्रति सजग दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित करता रहा, फलस्वरूप वह समाज को बहुत कुछ दे गये। आज भले ही भौतिक रूप से वह हमारे बीच नहीं है, किन्तु वह हम सबके वंदनीय और स्मरणीय हैं और चिरकाल तक उनके साहित्य की उपादेयता बनी रहेगी।
उनके बहुआयामी व्यक्तित्व पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है और लिखा भी जा रहा है। यह क्रम आगे भी जारी रहेगा। फिलहाल उनकी स्मृतियों के प्रणाम कर अपनी बात यहीं समाप्त करना चाहूंगा।
कवि एवं संपादक – नये पाठक
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