रायगढ़ | संवाददाता: छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के चिटकाकानी गांव के सुशील गुप्ता इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि इस बुधवार को अपने पिता के साथ-साथ मां का भी दशगात्र करना, उन्हें किसी क़ानूनी मुश्किल में न डाल दे.
इसी असमंजस के कारण वे शोक पत्र भी नहीं छपवा पा रहे हैं.
पिछले रविवार यानी 14 जुलाई को उनके पिता जयदेव गुप्ता की कैंसर की लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया था. शाम को उनका अंतिम संस्कार कर के पूरा गांव लौट आया. रात 11 बजे के आसपास जब सुशील गुप्ता की नींद खुली तो मां घर में नहीं थीं.
सुशील गुप्ता बताते हैं कि उन्होंने घर के दूसरे लोगों को आवाज़ दी. अड़ोस-पड़ोस के लोगों को जगाया गया. आसपास में 57 साल की अपनी मां, गुलापी गुप्ता की तलाश की गई. गांव के लोग घर से कुछ ही दूर, रेल पटरी तक गए. लेकिन मां का कहीं पता नहीं चला.
सुशील कहते हैं-“गांव के कुछ लोगों की सलाह पर हम सब श्मशान घाट की तरफ़ गये. श्मशान घाट, घर से पांच-सात सौ मीटर की ही दूरी पर है. वहां जाने पर देखा कि मां ने जो साड़ी पहन रखी थी, वह पिता जी की जलती चिता के बाहर रखा है. साथ ही उनका चप्पल और चश्मा भी वहीं था. मैंने चिता में देखा तो माँ का एक पैर नज़र आया. फिर हम लोगों ने शमशान से ही पुलिस को सूचना दी.”
गांव के लोग किसी क़ानूनी मुश्किल में नहीं उलझना चाहते, इसलिए वे ‘सती’ शब्द का उपयोग करने के बाद, तुरंत अपने को संभालते हैं और इसे ‘आत्मदाह’ की संज्ञा देते हुए, दुख जताने लगते हैं.
गांव की महिला सरपंच हरिमति राठिया के रिश्ते के भतीजे हेमंत कुमार कहते हैं-“मैं रात 2:32 के आसपास शमशान घाट में पहुंचा तो वहां चिता की लपट उठ रही थी. बरसों मैंने लोगों का अंतिम संस्कार देखा है. मुझे जो समझ में आया, उससे लगा कि कमर और सिर का हिस्सा जल रहा था.”
लेकिन वे इस बहस में नहीं उलझना चाहते कि जलती हुई देह किसकी थी.
अपने घर के बाहर एक बुजुर्ग के साथ बैठे सुशील गुप्ता कहते हैं-“शरीर के किसी हिस्से में अगर एक जलती हुई अगरबत्ती छू जाए तो हम चिल्ला उठते हैं. भला कोई और चिता में कूद कर अपनी जान क्यों देगा ? पिताजी के निधन के बाद मां काफी व्यथित थी. लेकिन इस व्यथा में वो ऐसा क़दम उठाएंगी, इसकी आशंका किसी को नहीं थी.”
ज़िले के पुलिस अधीक्षक दिव्यांग पटेल यह मानते हैं कि मृतक के बेटे ने अपनी मां गुलापी गुप्ता द्वारा, पति जयदेव गुप्ता की चिता में जान दे देने की आशंका जताई है. लेकिन इसके कोई प्रमाण नहीं हैं. किसी ने गुलापी गुप्ता को आत्मदाह करते नहीं देखा.
यही कारण है कि रायगढ़ के चक्रधरनगर थाने की पुलिस ने गुलापी गुप्ता के गुमशुदा होने का मामला दर्ज़ किया है. श्मशान में जयदेव गुप्ता की चिता के पास गुलापी गुप्ता की साड़ी, चप्पल और चश्मा मिलने के बाद पुलिस ने पास के तालाब में भी गुलापी गुप्ता की तलाश करने की कोशिश की.
इसके अलावा चिता में जल चुकी हड्डियों को फारेंसिक टेस्ट के लिए भेजा है. लेकिन अभी यह साफ़ नहीं हुआ है कि दो अलग-अलग लोगों की हड्डियां मिली हैं या नहीं. अगर दो लोगों की हड्डियां मिल भी जाएं तो दूसरी हड्डी गुलापी गुप्ता की ही है, इसके लिए उसकी डीएनए जांच करवानी होगी और अभी इसमें काफ़ी वक़्त लगेगा.
लेकिन गुलापी गुप्ता के ‘गुमशुदा’ होने की पुलिस की थ्योरी से गांव के अधिकांश लोग असहमत हैं.
गांव के एक बुजुर्ग कहते हैं-“जयदेव गुप्ता और गुलापी गुप्ता के एक बेटे और बेटी हैं. बेटी बहुत पहले विवाह के बाद ससुराल जा चुकी है. उनका बेटा सुशील गुप्ता, श्रवण कुमार की तरह है. उसने माता-पिता की जैसी सेवा की है, उसकी तो आज के ज़माने में कोई सोच भी नहीं सकता. ज़मीन-जायदाद का मामला है नहीं, बेटे से कोई अनबन का सवाल ही नहीं है तो गुलापी गुप्ता घर छोड़ कर कहां जाएंगी? अब आप इसे सही माने, ग़लत माने, ग़ैरक़ानूनी माने, लेकिन उन्होंने पति की चिता में अपनी जान दे दी, हम सब तो यही मानते हैं. बाकि पुलिस नियम क़ानून से बंधी है, इसलिए वह उन्हें लापता बता रही है.”
चक्रधरनगर थाने के एक पुलिसकर्मी अपना नाम बताने से परहेज करते हुए बताते हैं कि 65 साल के जयदेव गुप्ता और उनकी पत्नी में अटूट प्रेम था. वे कहते हैं-“हम लोगों को जितनी जानकारी मिली है, उससे आप कह सकते हैं कि दोनों लव बर्ड थे. ”
गांव के वासुदेव प्रधान बचपन से जयदेव गुप्ता और उनके परिवार को जानते रहे हैं. दोनों ने एक ही स्कूल में आगे-पीछे पढ़ाई की है.
वे कहते हैं-“अब जैसे हम लोग खेत में काम करते हैं तो हमारी पत्नी घर में रहती हैं लेकिन वो दोनों पति-पत्नी एक साथ काम भी करते थे. जयदेव सिलाई करते रहते थे, वो वहीं बैठ कर तुरपाई करती रहती थीं. रिश्ता-नाता हो या बाज़ार, मैंने दोनों को कभी अकेले नहीं देखा. हर जगह दोनों एक साथ जाते थे.”
वासुदेव प्रधान बताते हैं कि वे सुबह बाज़ार की ओर घूमने निकला तो पता चला कि टेलर जयदेव गुप्ता की पत्नी की भी जल कर मौत हो गई है.
स्टाम्प वेंडर का काम करने वाले 54 साल के राकेश कश्यप कहते हैं कि उन्होंने केवल किताबों में ही इस तरह की घटना के बारे में पढ़ा था या बुजर्गों के किस्से कहानियों में सुना था. वे इसमें नहीं उलझना चाहते है कि इसे ‘सती’ होना कहा जाए या ‘आत्मदाह’.
राकेश कश्यप कहते हैं-“राजा राम मोहन राय के ज़माने में सती होने की प्रथा थी. अपने राज्य में तो यह हमने पहली बार ऐसी बात सुनी है.”
हालांकि वे इस तरह की प्रथा का समर्थन नहीं करते. उनका कहना साफ़ है कि जो पुरानी कुरीति थी, उसे छोड़ कर हम आगे बढ़े हैं. अब फिर से वहीं लौटने को सही नहीं ठहराया जा सकता.
भारत में गुप्त काल से सती प्रथा का चलन के प्रमाण मिलते हैं, जिसमें पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी को भी ज़िंदा जला दिया जाता था.
ब्रिटिश शासनकाल में भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने पांच जजों और सेना के 49 वरिष्ठ अफ़सरों की राय के बाद 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध का क़ानून लागू किया था. इसके लिए मौत की सज़ा का प्रावधान किया गया था.
पहले से ही सती प्रथा का विरोध कर रहे राजा राम मोहन राय ने इस क़ानून का स्वागत करते हुए ‘उनके चरित्र पर लगे महिलाओं के हत्यारों के कलंक से बचाने के लिए’ बेंटिक का धन्यवाद किया था.
हालांकि इस क़ानून के बाद भी सती प्रथा जारी रही. आज़ाद भारत में लोगों में थोड़ी जागरुकता आई तो उन्होंने इस कुप्रथा को बढ़ावा नहीं दिया. यही कारण है कि सती होने के मामले लगभग ख़त्म हो गई.
लेकिन 1987 में राजस्थान के दिवराला गांव में रुप कंवर के सती होने की घटना ने देश में सनसनी फैला दी थी.
सीकर ज़िले के राजपूत परिवार के 24 साल के माल सिंह की जनवरी 1987 में जयपुर के परिवहन व्यवसाय से जुड़े बाल सिंह राठौड़ की सबसे छोटी बेटी 18 साल की रूप कंवर से शादी हुई थी. तीन सितंबर 1987 को माल सिंह के पेट में दर्द हुआ और अगली सुबह सीकर के अस्पताल में उनकी मौत हो गई.
चार सितंबर को माल सिंह का जब अंतिम संस्कार किया गया तो रूप कंवर भी उस चिता में जल कर अपनी जान दे दी. परिजनों पर आरोप लगा कि उन्होंने दबाव बना कर रूप कंवर को इसके लिए तैयार किया था. मामले में 32 लोगों को गिरफ़्तारी हुई लेकिन दस साल बाद अक्तूबर 1996 में इस मामले में सभी लोगों को रिहा कर दिया गया.
हालांकि रूप कंवर की मौत की घटना के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. इस बीच राजस्थान और देश में ‘सती प्रथा’ से संबंधित नए सख़्त क़ानून भी लागू किए गए.
लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि 1987 की दिवराला सती कांड के बाद भी राजस्थान में सती होने का मामले सामने आते रहे. माना जाता है कि जिस तरह सती होने को महिमामंडित किया गया, उसके कारण समाज का एक वर्ग इस कुप्रथा को जारी करने के पक्ष में था.
आंकड़े बताते हैं कि 1987 में ही दिवराला की देखा-देखी सती के 13 मामले सामने आए. इसके बाद 1988 में भी राजस्थान में सात मामले दर्ज किए गए. 1989 में सती प्रथा के दो मामले दर्ज किए गए. इसी तरह 1993 और साल 2000 में सती प्रथा से संबंधित एक-एक मामले दर्ज किए गए.
छत्तीसगढ़ में भी प्राचीन काल में सती प्रथा की कई घटनाओं का उल्लेख मिलता है. कुछ जनजातियों में भी सती प्रथा का चलन रहा है. इसके अलावा राज्य के कई हिस्सों में सती मंदिर या सती स्थल मिलते हैं. लेकिन पिछले कई दशकों में राज्य में कभी इस कुप्रथा के मामले सामने नहीं आए.
छत्तीसगढ़ की हैरान करने वाली ताज़ा घटना ने कई सवाल उठाए हैं. इन सवालों में कुछ कल्पनाएं शामिल हैं, कुछ दावे, कुछ औपचारिकताएं.
लेकिन इतना तो सच है कि अभी गुलापी गुप्ता केवल कागजों में रह गई हैं और सुशील गुप्ता की मानें तो अब वो उनकी स्मृतियों का हिस्सा भर हैं.
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