रायपुर | आलोक पुतुल : पंडवानी की पर्याय तीजन बाई इन दिनों बीमार हैं. पिछले कई महीनों से वो बिस्तर पर हैं.
घर वाले कहते हैं कि वे अपने बचपन में लौट गई हैं. बच्चों जैसी बातें करने लगी हैं. सिर में ख़ून के थक्के जम जाने से उन्हें अब चीजें याद नहीं रहतीं.
उनकी स्मरण शक्ति पूरी तरह से कमज़ोर हो गई है.
लेकिन उनका इलाज और उनकी हर ज़िम्मेवारी वहन करने का दावा करने वालों को भी तीजन बाई की याद नहीं आतीं.
समय के साथ, अधिकांश लोगों ने उन्हें भुला दिया है.
तीजनबाई की बहू वेणु देशमुख कहती हैं-“हमारा पूरा परिवार गुहार लगा-लगा कर थक चुका है. पूरा घर उनके भरोसे चलता था. बड़े बेटे और छोटे बेटे की मौत के बाद तो घर में आय के स्रोत और कम हो गए. थोड़ी-सी खेती और घर के सामने किराने की एक दुकान; इसी से घर चलता है. मां का इलाज होता है.”
घर वाले चाहते थे कि घर के किसी सदस्य को नौकरी मिल जाए तो परिवार का खर्च वहन करना आसान हो जाए. तीजन बाई के पक्षाघात के बाद डॉक्टरों ने कहा कि लगातार फिजियोथेरेपी की ज़रूरत होगी. पैसे की कमी के कारण फिजियोथेरेपी का बंदोबस्त नहीं हो पाया.
वेणु के अनुसार घर वालों ने तय किया है कि अब किसी से कुछ नहीं मागेंगे.
बरसों पहले हिंदी के कवि भगवत रावत ने अपनी एक कविता में लिखा था-हाथ में इकतारा लेकर गाते हुए, जब काल को आवाज़ लगाती हैं तीजन बाई, तो आकाश में देवता, हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं.
लेकिन अब तीजन बाई इतनी अशक्त हैं कि वे ठीक से बोल भी नहीं पातीं.
जिन्होंने तीजन बाई को तंबूरा लेकर भीम की मुद्रा में सननननननन गाते हुए देखा-सुना है, उन्हें अब यह जानकर दुःख होगा कि तीजनबाई अब ठीक से खड़ी भी नहीं हो पातीं.
उनकी एक पोती बताती हैं कि तीजन बाई का भिलाई के सेक्टर-9 के अस्पताल में इलाज चलता रहा है. लेकिन कई बार निजी अस्पताल में इलाज की ज़रूरत हुई तो घर में पैसे कम पड़ गए.
इन दिनों बेमेतरा ज़िले के बेरला के किसी चिकित्सक के यहां इलाज चल रहा है.
1956 में जन्मी तीजन बाई ने, 13 साल की उम्र में पहली बार चंदखुरी गांव में पंडवानी का सार्वजनिक प्रदर्शन किया था. और उसके बाद फिर तीजन पंडवानी में ही रम गईं
अपने नाना बृजलाल पारधी से पंडवानी सीखने वाली तीजन बाई को पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिला. लेकिन पंडवानी ने छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़ी और तीजन बाई को पूरी दुनिया में एक विशिष्ट पहचान दिलाई.
तीजन बाई ने धीरे से अपना नाम लिखना सीखा, फिर हस्ताक्षर करना.
इन सबके बीच पंडवानी की कथा, दुर्ग, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की सीमा लांघती हुई देश और दुनिया में गूंजती रही. पंडवानी की कपालिक परंपरा की गायिका तीजन बाई और पंडवानी एक-दूसरे के पर्याय बन गए. दुनिया के अलग-अलग देशों में वो पंडवानी गाती रहीं.
उन्हें भिलाई इस्पात संयंत्र में नौकरी भी मिली.
1988 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया. 1996 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड दिया गया. ऐसे सम्मान और पुरस्कारों की एक लंबी श्रृंखला है.
2003 में तीजन बाई को बिलासपुर के गुरुघासीदास विश्वविद्यालय ने डी लिट् से सम्मानित किया. 2017 में उन्हें इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ ने भी डी लिट् से सम्मानित किया.
उन्हें पद्मभूषण और फिर देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया.
2018 में तीजनबाई को दिल का दौरा पड़ा लेकिन इलाज के कुछ ही दिनों के बाद, उन्होंने फिर से पंडवानी शुरू कर दी.
देश के अलग-अलग इलाकों में उन्होंने पंडवानी की प्रस्तुतियां दीं.
इस बीच कोरोना के कारण उनका स्वास्थ्य गिरता गया.
पिछले साल जुलाई में उनकी हालत गंभीर हुई. सरकारी अधिकारियों ने उनके इलाज की मुकम्मल व्यवस्था की. तब के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तीजन बाई से फोन पर बात की. स्वास्थ्य मंत्री ने व्यक्तिगत निर्देश जारी किए. स्थानीय सांसद विजय बघेल तीजन बाई को देखने पहुंचे.
लेकिन यह साल भर पुरानी बात है.
तब से अब तक तीजन बाई बिस्तर पर हैं.
कई मौसम गुजर गए. अफ़सर बदल गए, नेता बदल गए, सरकार बदल गई.
तीजन बाई की हालत नहीं बदली.
बरसों-बरस तक साथी रहा उनका तंबूरा, घर के एक कोने में चुपचाप पड़ा हुआ है.
अपने बिस्तर पर लेटी तीजन बाई, कमरे के सन्नाटे को तोड़ती हुई किसी छोटे बच्चे के अंदाज़ में कहती हैं-“नईं गाना पंडवानी.”
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