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Mahendra Singh Dhoni: जीते तो कोई फर्क नहीं, हारे तो बेफिक्र, अब 42 पर नाबाद महेंद्र सिंह धोनी

(संजय दुबे) भारतीय क्रिकेट के दो साल 1983 औऱ 2011 ऐसे साल रहे है जिसमे देशवासी भारतीय क्रिकेट टीम के विश्वविजेता होने पर सड़को पर झूमे है गाये है नाचे है। पहली बार कपिलदेव कप्तान थे तो दूसरी बार महेंद्र सिंह धोनी कप्तान थे। आज भी देश के करोड़ो क्रिकेट प्रेमियों के जेहन में धोनी द्वारा विजयी छक्का है जिसे खुद धोनी ने भी जी भर कर देखा था। आज धोनी खिलाड़ियों की उम्र के हिसाब से वयोवृद्ध हो रहे है लेकिन उम्र के हिसाब से 42 नाबाद।

आमतौर पर खिलाड़ियों का अंतरराष्ट्रीय खेल में उम्र लगभग 15 साल मानी जाती है। बहुत कम खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर होते है जो बहुत कम उम्र में स्थापित हो पाते है। महेन्द्र सिंह धोनी भी 2003-04 से स्थापित हुए थे और 2019 में अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से विदा हो गए। एक खिलाड़ी, कप्तान के रूप में उन्होने इस देश को जीतने सम्मान दिला सकते थे, दिलाये। अब उनकी सक्रियता केवल आईपीएल तक सिमट गई है। उम्र के पड़ाव में 42 नाबाद होने के बावजूद वे इस साल के आईपीएल विजेता टीम के कप्तान है। उनकी टीम में नामवर खिलाड़ी नही है लेकिन उनकी अपनी शैली है जिससे वे क्रिकेट को शतरंज में बदलते है और कमजोर मोहरों के बल पर विपक्षी टीम के बड़े मोहरों को हथियाते है। शतरंज में वे घोड़े की तरह सामने टीम के जगह ब्लॉक करते है। आईपीएल फाइनल में शुभमन गिल की अगर स्टम्पिंग याद करे तो पाएंगे कि ये धोनी का ब्रेन गेम था।

इस लेख में उनके क्रिकेट के आंकड़ों के बजाय उनकी ही चर्चा है। अगर आप टेनिस के महान खिलाड़ी बोर्न बोर्ग को कभी खेलते देखे होंगे तो ये महसूस हुआ होगा कि कोई शांत मना साधु टेनिस खेल रहा है। जीत हार में उल्लास औऱ विषाद से परे। महेन्द्र सिंह धोनी भी लगभग ऐसे ही रहे है। जीते तो कोई फर्क नहीं हारे तो बेफिक्र क्योकि जो व्यक्ति खेल के दो पासंग जीत औऱ हार की अनिवार्यता को आत्मसात कर ले तो परिणाम उसे प्रभावित करने के बजाय अगले कदम के लिए योजना बनाने वाला साबित करता है। धोनी ऐसे ही रहे। शांत, याने कैप्टन कूल। उनकी कप्तानी का लोहा अगर सचिन तेंदुलकर मान रहे है तो ये माना जा सकता है कि कप्तानी को लेकर धोनी कितने योजनाबद्ध हुआ करते थे। क्रिकेट में अधिकांश कप्तान के पास दो प्लान हुआ करते है लेकिन धोनी के पास इससे ज्यादा प्लान होते थे।

रेल्वे में टिकट निरीक्षक से सफर तय करने के बाद खेल के लिए उन्होंने नौकरी को छोड़ दिया। यही स्वभाव उनका क्रिकेट में भी रहा। जब वे 90 टेस्ट खेल चुके थे और भारत से खेल रहे थे, (जहाँ 10 टेस्ट तो पुरोनी में इसलिये खिलाया जा सकता है कि कप्तान है, दो दो बार विश्वविजेता बनाया है) आराम से 10 औऱ टेस्ट खेल कर 100 टेस्ट खेलने वाले बन सकते थे लेकिन छोड़ दिया। एकदिवसीय मैच में बतौर विकेटकीपर आराम से दो साल खेल सकते थे लेकिन नहीं खेले। टी20 में भी उनकी जगह थी लेकिन यहां से भी वे हटे। आईपीएल में जरूर वे एक सक्रिय खिलाड़ी नही रहे है लेकिन तमाशा क्रिकेट में ये चलता है।

सबसे बड़ी बात जो उनके लिए है कि उनकी दीवानगी की हद बेहद है। उनका मैदान में बैटिंग करने आना स्टेडियम में शोर का समुंदर खड़ा कर देता है। भावनाओ की दीवानगी का रंग चढ़ता है। ऐसी दीवानगी सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, कपिलदेव, सौरव गांगुली के लिए नही देखी गयी है। देश मे दो ही आवाज़ सम्वेत उठते दिखती है मोदी-मोदी, औऱ धोनी- धोनी। आज हर दिल अज़ीज़ एमएसडी अपने जीवन के 42 साल के पायदान पर पहुँच गए है। भारतीय क्रिकेट को उनसे बहुत कुछ लेना बाकी है। वे स्टंप के पीछे विकेटकीपर औऱ आगे एक नायाब फिनिशर की गुरु दक्षिणा दे सकते है।

शुभकामनाएं माही

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