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गाँधी मार्ग से ही इजराइल-फिलिस्तीन समस्या का हल संभव – रघु ठाकुर

रघु ठाकुर

 पिछले कुछ दिनों से हमास और इजराइल की चर्चा मीडिया की सुर्खियों में है और स्वाभाविक भी है। क्योंकि यह टकराव और युद्ध दुनिया को कहां ले जायेगा, किस प्रकार के परिवर्तन होंगे ये सब सवाल अभी भविष्य के गर्भ में है, परन्तु दुनिया को चिंतित करने वाले है।

      इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीन देश के हिस्सों को बांटकर इजराइल का निर्माण किया था। शायद यहूदी ही एक कौम थी जो अपने देश के बगैर दुनिया में भटक रही थी। जर्मनी में नाजीवाद और हिटलर के नस्लीय कत्लआम से यहूदी कौम की आबादी को भारी क्षति हुई थी तथा एक प्रकार से उन्हें जर्मनी से विस्थापित ही होना पड़ा था। हालांकि यहूदी समाज भले ही अल्पसंख्यक हो परन्तु उसकी योग्यता, क्षमता और ज्ञान अद्भुत है। दुनिया को कितने ही बड़े वैज्ञानिक और वैचारिक दुनिया को यहूदी समाज ने दिये।

      जिस किसी भी भावना से ब्रिटिश साम्राज्य ने फिलिस्तीन को काटकर इजराइल बनाया, वह बहस का विषय हो सकता है परन्तु अब इजराइल एक सत्य है और उसे बने हुये भी आज लगभग 70 वर्ष से अधिक एक देश के रूप में हो गये और उसका अस्तित्व बरकरार है। फिलिस्तीन के लोगों में अपनी जमीन को लेकर चिंता और चेतना है और वे उसे वापस लेना चाहते हैं। एक तो इसलिये भी कि फिलिस्तीन की आबादी के लिये पर्याप्त जगह अब फिलिस्तीन के पास नहीं है, दूसरे यरूशलम को इस्लामिक दुनिया अपना पवित्र तीर्थ स्थान मानती है। मक्का, मदीना के बाद यह उनका दूसरा सबसे बड़ा स्थान है। हालांकि यह आश्चर्यजनक है कि, जहां मुस्लिम भाईयों की मस्जिद है वही पर यहूदी भी अपनी मस्जिद बताते है। वैसे इसाई भी इसे अपना मूल केन्द्र और पवित्र स्थल मानते हैं। हर मजहब की अलग-अलग किवदंतियां है। परन्तु यह उनके अनुयाईयों में विश्वसनीय व सच हैं, और इसलिये इस एक स्थान पर तीनों के अपने-अपने दावे हैं। अगर यह किवदंतियां सच है और तीनों धर्मों का संबंध इस स्थान से है तो अच्छा तो यह होता कि तीनों धर्मों के धर्मावलंबी इस स्थल को ऐसा बनाते हैं कि वह दुनिया के लिये एक स्थाई यादगार संदेश होता।

      अगर ऐसा हो पाता तो फिलिस्तीन और इजराइल के बीच हालात इतने बुरे तो नहीं होते। फिलिस्तीन की जो जमीन यहूदियों को दी गयी थी जिस पर इजराइल का निर्माण हुआ है, जिसमें गाजा पट्टी का कुछ हिस्सा भी शामिल है उसको लेकर फिलिस्तीन में लगातार गहरी बैचेनी है और फिलिस्तीन की मुक्ती के लिये वे तन, मन, धन से समर्पित है तथा किसी न किसी रूप में युद्धरत है। फिलिस्तीन के मुक्ति संग्राम के नेता और उनके संगठन पी.एल.ओ. के नेता मरहूम यासिर अराफात थे। हालांकि दशकों के संघर्ष के बाद वे भी यह महसूस करने लगे थे कि युद्ध से और टकराव से कोई हल निकलने वाला नहीं है। हल तो अन्ततः बातचीत, संवाद और समझ से ही निकलेगा। यासिर अराफात की यहूदी पत्नी के माध्यम से बातचीत की पहल हुई थी और समझौता भी हुआ था। परन्तु यासिर अराफात की मौत और आमजन की अपनी-अपनी दृष्टि के दबावों से यह समझौता बहुत दिन तक कार्यान्वित व कारगर नहीं हो सका।

      गाजी पट्टी की जिस जमीन पर इजराइल का कब्जा है वह उसे छोड़ने को तैयार नहीं है। वह उसे अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक मानता है। फिलिस्तीन किसी भी प्रकार से वे अपनी जमीन वापस चाहते है। उनका संगठन हमास है। यासेर अराफात की मौत और समझौते की असफलता के बाद हमास को तेजी से फैलने का अवसर मिला। तथा हमास अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिये एक हिंसक और आतंकवादी संगठन के रूप में सामने आया।

      इजराइल ने अपने देश की कृषि, विज्ञान और सुरक्षा तंत्र में भारी विकास किया तथा पिछले समय में जब कभी भी फिलिस्तीन की ओर से हमास ने आतंकवादी हमले करने का प्रयास किया तो इजराइल ने न केवल उसे असफल किया बल्कि इससे उल्टे फिलिस्तीन को ही क्षति पहुंची। इस प्रत्युत्तर में इजराईल ने गाजा पट्टी की और भूमि पर भी कब्जा कर लिया और फिर उसे छोड़ने से इंकार कर दिया। पिछले काफी समय से आतंकवाद की कोई गंभीर घटना या हमला नहीं हुआ था जिससे कोई विशेष क्षति पहुंची हो। परन्तु इस बार हमास ने बहुत गहरी और लम्बी योजना बनाई तथा 7 अक्टूबर की रात्रि इजराइल की सीमा में हमला बोला और एक साथ पाँच हज़ार राकेट छोड़े। यह हमला इतना प्रायोजित, आकस्मिक और गोपनीय था कि इजराइल को इसकी भनक तक नहीं लगी। इजराइल का सूचना तंत्र बिल्कुल ही असफल रहा। जो इजराइल सारी दुनिया में अभेद्य सिस्टम के लिये जाना जाता था वह हतप्रभ रह गया। इस हमले में इजराइल के लगभग 1500 लोग मारे गये तथा हजार से अधिक लोग घायल हुये। इससे भी बदतर स्थिति यह थी कि हमास के आतंकवादियों ने महिलाओं के साथ भारी क्रूरता और अमानवीयता का व्यवहार किया। इस हमले से दुनिया में हमास आतंकवादी और युद्ध की शुरूआत करने वाला सिद्ध हुआ है। स्वभाविक था कि इजराइल की तरफ से प्रतिक्रिया तो होनी थी। इजराइल ने युद्ध की घोषणा कर दी, इजराइल के हमले में फिलिस्तीन के भी लगभग 4 हज़ार लोग मारे जा चुके हैं। लगभग 3 हज़ार लोग घायल है। 1 लाख से अधिक लोग घर छोड़कर भागे है और बहुत बड़ा इलाका नष्ट हो गया है। इजराइल के जो लगभग 250 लोग हमास द्वारा बंदी बनाकर गये रखे हैं उनकी तलाश जारी है। हालांकि अभी तक उन्हें इजराइली सेना छुड़ा नहीं पाई है। बताया जा रहा है कि वे हमास के बंकरों में बंद किये गये हैं। और बंकरों में हमला करना बंदियों की जान को भी खतरा हो सकता है, इजराइल ने इस केन्द्र की बिजली, पानी जैसी जीवन उपयोगी चीजों को रोक दिया है ताकि हमास दबाव में उनके बंदी छोड़ दे। पर अभी तक तो इसमें सफलता नहीं मिली है।

      इसमें कोई दो मत नहीं है कि हमास के लिये इस हमले के कारण बड़ी कीमत चुकाना पड़ी है। क्योंकि अब दुनिया का कोई भी देश कम से कम खुलकर इजराइल को आरोपित नहीं कर सकता और हमास का बचाव नहीं कर सकता। अमेरिका, यूरोप और भारत ने तो खुलकर ही इजराइल के साथ खड़े होने की घोषणा कर दी है। ईरान की सहानुभूति फिलिस्तीन व हमास के साथ है। परन्तु यह सब बड़े या विश्वयुद्ध में तब्दील करने के दृष्टिकोण से सहयोगी बनेगा या केवल मौखिक सहानुभूति तक सीमित रहेगा यह कहना भी कठिन है। अगर ईरान इसमें हमास का खुलकर सहभागी बनता है तो यह दुनिया को एक नये प्रकार के युद्ध में बदल देगा। ईरान भी अपने देश की सीमा के भीतर कई प्रकार के तनावों से जूझ रहा है। उदारवादी व्यवस्था व अमानवीय और बंधनों को लेकर, ईरान की आबादी का एक बड़ा हिस्सा सड़कों पर है, जेलों में जा रहा है और लम्बी-लम्बी सजायें भी सह रहा है। यहां तक की महिलायें भी सड़कों पर अपने अधिकारों व समता को लेकर लड़ रही है, व लंबी-लंबी सजायें काट रही है। यह भी महत्वपूर्ण घटना है कि ईरान में महिलायें महात्मा गाँधी के अहिंसक तरीके से अपने मानवीय अधिकार को लेकर लड़ रही हैं, तथा शांतिपूर्ण प्रतिरोध दर्ज कर जेलों में जा रही है। ईरान की सत्ता के मुखिया के खिलाफ भी आबादी का खासा हिस्सा है।

      इजराइल में भी इजराइल शासन के न्याय के सुधार के नाम पर न्यायपालिका के अधिकारों की कटौती के खिलाफ लगातार जन आंदोलन चल रहा है। और यह भी गाँधीवादी तरीके का अधिक आंदोलन है। इजराइल की सत्ता के खिलाफ भी गहरा जन असंतोष है। शायद यह भी एक कारण है कि आम लोगों में सुस्ती या निराशा, आक्रोश या गुस्सा जो अपनी देशी सत्ता के खिलाफ पैदा हुआ था उसने इजराइल की गुप्तचर व्यवस्था, क्षमता, सुरक्षा, और दिमाग को कहीं न कहीं प्रभावित किया था। जिस कारण हमास के हमले की सूचना व उसे रोक़ने की कार्यवाही इजराइल नहीं कर सका। जिसे दुनिया में दुर्भेध कवच माना जाता था वह क्षण में भरभराकर टूट गया।

      यह निर्विवाद सत्य है कि अगर जनमत असंतुष्ट होगा तो वह कोई भी देश हो उसकी सुरक्षा प्रभावित होगी। हमास ने अचानक नेपाल के 10 नागरिकों की भी हत्या कर दी और अब नेपाल भी हमास का पक्ष नहीं ले सकता, जो अभी तक फिलिस्तीन के साथ खड़ा होता रहा है। नेपाल के लोगों की हत्या का प्रभाव चीन की राजनीति पर भी पड़ेगा। वैसे तो चीन, रूस व ईरान की एक धुरी थी। परन्तु अब चीन नेपाल को एकदम भावनात्मक रूप से अलग नहीं कर सकता। वैसे भी चीन और इजराइल की भौगोलिक दूरी और विशेषतः जमीनी दूरी बहुत अधिक है। इसलिये भी चीन हमास फिलिस्तीन का बहुत सक्रिय सहयोगी, युद्ध में मदद के दृष्टिकोण से नहीं हो सकता।

    अपने युद्ध के आक्रोश व उन्माद इजराइल ने 17 अक्टूबर को एक भारी भूल व अमानवीय कृत्य कर दिया कि, गाजा पट्टी के अस्पताल पर हमला किया। जिसमें 500 लोग मारे गये यह क्रूरता है जिसने इजराइल के समर्थकों को भी निरूतर कर दिया है। दुनिया में इनकी तीखी प्रतिक्रिया भी हुई है। तथा जो इस्लामिक देश भी हमास की गलती मानकर चुप थे अब वे भी इस इजराइली क्रूरता के खिलाफ मुखर हो रहे हैं। इजराइल समर्थक अमेरिका, ब्रिटेन, भारत जैसे देशों को भी अब स्वर बदलना पड़ा है।

      मैं ऐसा महसूस करता हूं कि दुनिया में ऐसे कई सीमा और जमीन की समस्यायें हैं, घुसपैठियों व शरणार्थियों की समस्यायें हैं, जल, थल की समस्यायें हैं, जिनका कोई मुक्मल हल जब तक नहीं निकल सकता जब तक की उसके पक्ष ही वास्तविकता को समझने को तैयार न हो। 1959 से तिब्बत पर चीन का कब्जा है और भारत सहित दुनिया का बड़ा हिस्सा तिब्बत की आजादी के पक्ष में है। परन्तु पिछले लगभग 60 वर्षों में केवल प्रस्ताव, प्रार्थना, भाषणों, उपदेश तक ही यह मुहिम सब सीमित है। न दुनिया दुनिया की वैश्विक संस्था चीनी कब्जे को हटा सकी, तिब्बत की आजादी वापस दिला सकी और शायद अभी कुछ समय तक आने वाले भविष्य में यह संभव नहीं लग रहा। जो लड़ता है उसे ही क्षति होती है, उसी की आबादी मरती है , वही विस्थापित होता है, वही आर्थिक बोझ सहता है, और शोक संवेदनाओं, सहानुभूति के प्रस्तावों से कोई हल नहीं निकल पाता है।

      मैं जानता हॅू कि कुछ लोग मेरे इस कथन को भी दार्शनिक उपदेश कहेंगे, परन्तु यह एक व्यवहारिक सच मैं कह रहा हॅू की जमीन पर कब्जा है यह सच है परन्तु क्या अब इस सच को मिटाया जा सकता है। मुझे नहीं लगता कि आगामी लम्बे समय में इस सच को मिटाने की ताकत या मन किसी के पास होगा। इसलिये में हमास के हमले व क्रूरता तथा प्रति उत्तर में इजराइल के आयात पर किये क्रूरतये हमले की निंदा करते हुए यह अपील करूॅगा कि।

1.    सत्य के आधार पर अपनी-अपनी स्थिति को स्वीकार करें, आपस का संघर्ष बंद करें।

2.    यू.एन.ओ. युद्ध विराम की घोषणा करे तथा अपनी एक निगरानी सेना दोनों की सीमा पर तैनात करें और येरूशलम को तीनों धर्मों यानि इस्लाम, यहूदी इसाईयों का एक सामूहिक तीर्थ बनाया जाये तो शायद समस्या का हल भी निकले और दुनिया को एक बड़ा संदेश मिलेगा तथा संभव है कि ऐसे अन्य मसलों पर दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी कुछ विचार शुरू हो, पहल हो और एक बेहतर दुनिया बनने का रास्ता निकले।

3.    इजराइल गाजा पट्टी की बाद में कब्जाई फिलिस्तीनी जमीन को खाली करे।

4.    संयुक्त राष्ट्र संघ का फिलिस्तीन – इजराइल समस्या केन्द्र पर विचार के लिये विशेष सम आहूत कर विचार व निर्णय किया जाय।

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक और स्वं राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं।श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के भी संस्थापक अध्यक्ष हैं।    

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